साइकोलॉजी के पितामह कहे जाने वाले सिगमंड फ्रायड की पूरी कहानी
विशेष
• NOIDA 06 Aug 2025, (अपडेटेड 06 Aug 2025, 2:48 PM IST)
सिगमंड फ्रायड एक ऐसी शख्सियत था जिसके विचारों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन उसे इग्नोर बिल्कुल भी नहीं कर सकते हैं।

सिगमंड फ्रायड की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
19 वीं सदी की आख़िरी चौथाई की बात है। वियना की सड़क पर, एक पिता अपने 10-12 साल के बेटे को अपनी ज़िंदगी एक किस्सा सुना रहा था। पिता ने बताया कि एक बार एक गैर-यहूदी आदमी ने उसकी नई नवेली टोपी को कीचड़ में फेंक दिया और चिल्लाकर कहा, 'यहूदी, फुटपाथ से उतर जा!'बेटे ने पूछा, 'और आपने क्या किया?' पिता ने दबी आवाज़ में जवाब दिया, 'मैंने फुटपाथ से उतरकर कीचड़ से अपनी टोपी उठा ली।'
यह जवाब सुनकर उस लड़के का दिल बैठ गया। अपने पिता का यह दब्बूपन, यह लाचारी उसे बर्दाश्त नहीं हुई। उसी पल उस लड़के ने तय कर लिया कि वह अपने पिता जैसा कभी नहीं बनेगा। उसने मन में अपना हीरो चुन लिया था- हैनिबल। कार्थेज का वह महान सेनापति जिसने उस दौर की सबसे बड़ी ताक़त, रोम को चुनौती दी थी।
यह भी पढ़ें- बिहार की गिद्धौर रियासत का इतिहास क्या है?
वह लड़का बड़ा होकर सिपाही तो नहीं बना लेकिन उसने एक ऐसी जंग छेड़ी जिसने पूरी दुनिया को बदलकर रख दिया। उसने बंदूकों या तलवारों से नहीं बल्कि शब्दों और विचारों से हमला बोला और यह हमला किसी देश पर नहीं बल्कि इंसानी दिमाग पर हुआ। उस लड़के का नाम था सिगमंड फ्रायड। साइकोलॉजी के पितामह। वह इंसान जिसने हमें बताया कि हमारे अंदर एक अनजान दुनिया है, जिसे 'अनकॉन्शियस' कहते हैं। जिसने कहा कि हमारे सपने बकवास नहीं बल्कि हमारी दबी हुई इच्छाओं का आईना हैं। जिसने हमारे बचपन, हमारी ख्वाहिशों और हमारे डर को समझने का एक नया नज़रिया दिया पर सवाल यह है कि क्या फ्रायड वाकई एक जीनियस था जिसने इंसान के मन के सबसे गहरे राज़ खोले? या वह एक कहानीकार था जिसने विज्ञान के नाम पर दुनिया को सबसे बड़ा धोखा दिया?
आज जानेंगे उस इंसान की कहानी जिसने हमारे दिमाग के नक्शे को हमेशा के लिए बदल दिया: नाम था सिगमंड फ्रायड।
कोकेन और फ्रायड के दावे
साल 1884, सिगमंड फ्रायड 28 साल का एक नौजवान डॉक्टर है, जो वियना जनरल हॉस्पिटल में काम करता है। वह ब्रिलियंट है, महत्वाकांक्षी है लेकिन साथ ही बेचैन भी है। उसकी जेब खाली है और दिल में एक बड़ा नाम बनाने की हसरत है। उसे शोहरत चाहिए और पैसा भी ताकि वह अपनी मंगेतर मार्था से शादी कर सके। वह एक ऐसी खोज की तलाश में था जो उसे रातों-रात दुनिया की नज़रों में ले आए और फिर उसे लगा कि वह खोज उसे मिल गई है। एक जर्मन मेडिकल जर्नल में उसने एक अनजान से पौधे के बारे में पढ़ा। उसने उसका पाउडर मंगवाया। उस पाउडर का नाम था - कोकेन।
फ्रायड ने उसका पहला प्रयोग खुद पर किया। उसने अपनी डायरी और खतों में लिखा है कि कैसे चुटकी भर पाउडर ने उसकी थकान और भूख को गायब कर दिया। उसका दिमाग़ पहले से ज़्यादा तेज़ चलने लगा। उसे लगा कि उसके हाथ कोई जादुई दवा लग गई है। पीटर गे फ्रायड की जीवनी 'Freud: A Life for Our Time' में लिखते हैं कि फ्रायड ने कोकेन को लेकर बड़े-बड़े दावे करने शुरू कर दिए। उसने लेख लिखे, जिसमें कहा गया कि यह डिप्रेशन, बदहज़मी और थकावट का अचूक इलाज है।
यह भी पढ़ें- मुरहो एस्टेट: वह रियासत जहां यादवों का हुक्म चलता था
कोकेन को लेकर फ्रायड ने एक अनोखा परीक्षण किया। अपने ही दोस्त के साथ। फ्रायड का एक बहुत करीबी दोस्त था। जो अपने एक पुराने ज़ख्म में होने वाले बेइंतहा दर्द से परेशान था। इससे बचने के लिए वह मॉर्फिन का सेवन करता था और उसका आदी हो चुका था। फ्रायड ने दोस्त की मदद करनी चाही। उसने उसे मॉर्फिन की जगह कोकेन देना शुरू कर दिया।
नतीजा भयावह था। फ्रेडरिक क्रूज़ अपनी किताब 'Freud: The Making of an Illusion' में बताते हैं कि दोस्त मॉर्फिन की लत से तो नहीं छूटा पर वह कोकेन का भी खतरनाक आदी बन गया। उसकी हालत बद से बदतर हो गई। वह वहम का शिकार होने लगा। उसे लगता था कि उसकी त्वचा पर सफेद सांप रेंग रहे हैं। अपने दोस्त की यह दर्दनाक हालत देखकर फ्रायड हिल गया पर उसने पूरी तरह कभी अपनी गलती नहीं मानी।
इसी दौरान फ्रायड एक और बड़ी खोज के मुहाने पर खड़ा हुआ। उसने महसूस किया था कि कोकेन ज़ुबान को सुन्न कर देता है। उसने सोचा कि इसका इस्तेमाल लोकल एनेस्थीसिया, यानी किसी हिस्से को सुन्न करने के लिए किया जा सकता है। उसने इस बारे में अपने एक साथी डॉक्टर कार्ल कोलर से बात भी की। दोनों ने मिलकर आंखों पर इसका प्रयोग करने की योजना बनाई लेकिन शायद फ्रायड की किस्मत में यह शोहरत नहीं लिखी थी। इससे पहले कि वह यह प्रयोग कर पाता, वह अपनी मंगेतर से मिलने के लिए शहर से बाहर चला गया। उसकी गैर-मौजूदगी में कोलर ने अकेले ही प्रयोग पूरा कर लिया। उसने पहले जानवरों और फिर इंसानों की आंखों पर कोकेन का सफल परीक्षण किया। उसने साबित कर दिया कि कोकेन की मदद से आंखों का ऑपरेशन बिना दर्द के किया जा सकता है।
यह भी पढ़ें- मिथिला के ऐसे राजा की कहानी जिन्हें ऋषि भी अपना गुरु मानते थे
कोलर ने जैसे ही अपनी खोज का ऐलान किया, मेडिसिन की दुनिया में वह रातों-रात हीरो बन गया और फ्रायड जो इस खोज से बस एक कदम दूर था, हाथ मलता रह गया। उसे ज़िंदगी भर इस बात का मलाल रहा कि शोहरत उसके हाथ आकर फिसल गई। कोकेन का नशा कुछ सालों में उतर गया। मेडिकल जगत को उसके खतरे समझ में आने लगे और फ्रायड ने भी धीरे-धीरे अपने उन लेखों से दूरी बना ली जिनमें वह उसे 'जादुई दवा' कहता था।
फ्रायड और ब्रूयर
कोकेन से मिली नाकामी के बाद फ्रायड एक दोराहे पर था। वह पेशे से एक न्यूरोलॉजिस्ट था यानी दिमाग़ और नसों का डॉक्टर लेकिन उसके पास ऐसे मरीज़ आ रहे थे जिनकी बीमारियां किसी भी मेडिकल किताब में फ़िट नहीं होती थीं। इन मरीज़ों को 'हिस्टीरिया' का शिकार माना जाता था। ये ज़्यादातर औरतें होती थीं, जिनके शरीर में अजीबोगरीब लक्षण दिखते थे। किसी का हाथ या पैर अचानक काम करना बंद कर देता, किसी को दिखना बंद हो जाता, किसी को भयानक खांसी के दौरे पड़ते और जब डॉक्टर उनकी जांच करते तो शरीर में कोई भी खराबी नहीं मिलती थी। दिमाग, नसें, सब कुछ अपनी जगह सही होता था। यह एक ऐसी पहेली थी जिसने पूरे मेडिकल जगत को परेशान कर रखा था।
इसी दौर में फ्रायड को रास्ता दिखाया उसके एक पुराने दोस्त और गुरु ने, उनका नाम था डॉ. जोसेफ़ ब्रूयर। ब्रूयर वियना के एक नामी और अमीर डॉक्टर थे। उन्होंने फ्रायड को एक हैरान कर देने वाला किस्सा सुनाया। यह किस्सा उनकी एक मरीज़ का था, जिसका असली नाम तो नहीं पता लेकिन यह क़िस्सा इतना मशहूर है कि आज भी दुनिया उस मरीज़ को कोड नेम 'एना ओ।' (Anna O.) के नाम से जानती है।
एना ओ. हिस्टीरिया के सबसे मुश्किल मामलों में से एक थी। उसके लक्षण किसी को भी चकरा देते। उसके हाथ-पैर में लकवा मार जाता, उसकी नज़र धुंधला जाती और एक वक़्त ऐसा भी आया जब वह अपनी मातृभाषा जर्मन भूल गई और सिर्फ़ अंग्रेज़ी में बात करने लगी। ब्रूयर ने महीनों तक उसका इलाज किया और फिर एक दिन, लगभग गलती से एक कमाल हुआ। ब्रूयर ने पाया कि जब वह मरीज़ को हल्की बेहोशी या सम्मोहन की हालत में लाता तो वह अपने लक्षणों से जुड़ी पुरानी, भूली हुई बातें बताने लगती। जैसे उसने बताया कि कैसे एक बार उसने अपनी एक साथी की कोई घिनौनी हरकत देखी और उसके बाद से ही उसे पानी से नफ़रत हो गई।
यह भी पढ़ें- बिहार का टिकारी राज खत्म कैसे हो गया? पढ़िए पूरी कहानी
कमाल की बात यह थी कि जैसे ही वह इन दबी हुई, दर्दनाक यादों को ज़ुबान पर लाती, उसका वह लक्षण ग़ायब हो जाता। एना ओ. ने खुद इस अनोखे इलाज को दो नाम दिए थे: 'टॉकिंग क्योर', यानी बातों से होने वाला इलाज और 'चिमनी स्वीपिंग'यानी मन की सफ़ाई।
फ्रायड यह सुनकर उछल पड़ा। उसे लगा कि ये एक क्रांतिकारी खोज है। उसने ब्रूयर के साथ मिलकर इस विषय पर काम करना शुरू कर दिया। 1895 में दोनों ने मिलकर एक किताब छापी, 'स्टडीज़ ऑन हिस्टीरिया' (Studies on Hysteria)। यह किताब साइकोएनालिसिस की तरफ़ पहला बड़ा क़दम थी। इसमें उन्होंने अपना मशहूर सिद्धांत दिया: 'हिस्टीरिया के मरीज़ असल में अपनी भूली हुई यादों से परेशान रहते हैं।' यानी लक्षण शरीर में दिखते हैं पर जड़ मन में दबे किसी पुराने ज़ख्म में होती है।
इसी किताब ने दोनों दोस्तों के रास्ते हमेशा के लिए अलग कर दिए। फ्रायड ने अपने मरीज़ों में एक पैटर्न देखना शुरू किया था जो ब्रूयर को बिल्कुल पसंद नहीं आया। फ्रायड का मानना था कि ज़्यादातर मामलों में ये जो 'दबी हुई याद' थी, उसका ताल्लुक किसी यौन अनुभव से था।
एना ओ. के केस में भी कुछ ऐसा ही हुआ। इलाज के दौरान वह अपने डॉक्टर यानी ब्रूयर से भावनात्मक रूप से बहुत ज़्यादा जुड़ गई। यह जुड़ाव इतना गहरा हो गया कि एक दिन उसे लगने लगा कि वह ब्रूयर के बच्चे की मां बनने वाली है। इसे फ्रायड ने बाद में 'ट्रांसफरेंस' का नाम दिया। अपनी मरीज़ का यह हाल देखकर ब्रूयर बुरी तरह घबरा गया। वह एक शादीशुदा आदमी था। उसने फौरन इलाज बंद कर दिया और इस पूरे सब्जेक्ट से ही तौबा कर ली।
यह भी पढ़ें- बिहार की राजनीति में अहम हैं भूमिहार, आखिर क्या है इनकी पूरी कहानी?
अब फ्रायड अकेला था लेकिन उसे इस नई थीसिस में एक नई दुनिया का दरवाज़ा नज़र आ रहा था। उसने तय किया कि वह इसी रास्ते पर अकेले चलेगा। उसने अपने क्लीनिक में मरीज़ों को सम्मोहित करना बंद कर दिया। उसकी जगह एक नया तरीका अपनाया। वह मरीज़ को एक आरामदायक सोफ़े या काउच पर लिटा देता, खुद उसके पीछे बैठ जाता और उससे कहता कि तुम्हारे मन में जो भी आए, बस बोलते जाओ। अच्छा, बुरा, शर्मनाक, बेवकूफ़ी भरा, कुछ भी। इसी तकनीक को 'फ़्री एसोसिएशन' कहा गया। वह सोफ़ा या काउच, फ्रायड के क्लीनिक का एक मामूली फ़र्नीचर नहीं था। वह उस जगह का प्रतीक बन गया जहां मन के सबसे गहरे और अंधेरे राज़ बाहर आने वाले थे। बातों से शुरू हुआ इलाज अब एक नए विज्ञान की शक्ल ले रहा था और इस विज्ञान के केंद्र में फ्रायड ने उस चीज़ को रखा था जिससे उसका अपना गुरु डरकर भाग गया था—इंसानी सेक्सुअलिटी।
ओडिपस
23 अक्टूबर, 1896, सिगमंड फ्रायड के पिता, जैकब फ्रायड, का निधन हो गया। इस घटना ने फ्रायड को अंदर तक झकझोर दिया। बाद में उसने लिखा, 'एक इंसान की ज़िंदगी में पिता की मौत सबसे महत्वपूर्ण घटना और सबसे गहरा नुक़सान होती है।' ऊपर से वह एक बेटे के सारे फ़र्ज़ निभा रहा था लेकिन अंदर एक तूफ़ान चल रहा था। उसे अपने पिता के लिए दुख भी था पर साथ ही कुछ और भी भावनाएं थीं जिन्हें वह समझ नहीं पा रहा था और इन भावनाओं को समझने के लिए उसने अपनी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल सफ़र शुरू किया- अपने ही मन के अंदर का सफ़र।
यह दुनिया का शायद पहला साइकोएनालिसिस था और मरीज़ खुद डॉक्टर फ्रायड था। उसके पास कोई गाइड नहीं था, कोई किताब नहीं थी। ऐसे में उसने शुरुआत की सपनों से। फ्रायड मानता था कि सपने बकवास नहीं होते बल्कि हर सपना किसी 'इच्छा की पूर्ति' का सिग्नल होता है। इस मामले में एक मशहूर एग्जाम्पल है - Irma's injection या इर्मा का सपना।
इर्मा दरअसल फ्रायड की एक मरीज़ थी, जिसका इलाज पूरी तरह सफल नहीं हो पाया था और फ्रायड इस बात को लेकर थोड़ा चिंतित था। एक रात फ्रायड ने सपना देखा कि वह एक पार्टी में इर्मा से मिलता है। सपने में वह इर्मा के गले की जांच करता है और उसे एक इन्फेक्शन जैसा कुछ दिखाई देता है। फ्रायड परेशान हो जाता है फिर सपने में कुछ और डॉक्टर आते हैं और उनमें से एक इर्मा को एक इंजेक्शन देता है। सपने में ही फ्रायड को पता चलता है कि उस इंजेक्शन की सुई साफ़ नहीं थी।
यह भी पढ़ें- मगध बनाम वज्जि का झगड़ा और वस्सकार की कहानी
जब फ्रायड की नींद खुली तो उसे एक ज़बरदस्त ख़याल आया। उसने समझा कि यह सपना उल-जुलूल नहीं था। सपने ने एक ऐसी कहानी गढ़ी जिसमें इर्मा की बीमारी की ज़िम्मेदारी फ्रायड की नहीं, बल्कि उस दूसरे डॉक्टर की थी जिसने गंदा इंजेक्शन दिया। इसी एक सपने से फ्रायड ने अपना वह सिद्धांत निकाला कि हर सपना हमारी किसी-न-किसी दबी हुई 'इच्छा की पूर्ति' होता है। इस केस में यह फ्रायड की 'बेगुनाह' महसूस करने की इच्छा थी।
इसी हाइपोथिसिस के आधार पर फ्रायड ने अपने पिता की मौत के बाद अपनी उलझनों किओ सुलझाने की कोशिश की। शुरू कर दिया। वह रोज़ अपने सपनों को लिखता और उनका मतलब निकालने की कोशिश करता। इसी सेल्फ इंक्वायरी के दौरान, उसने अपने करियर का सबसे बड़ा और सबसे विवादित 'यू-टर्न' लिया। जैसा कि हमने पहले बताया, फ्रायड पहले यह मानता था कि उसके मरीजों की मानसिक समस्याओं की जड़ उनके बचपन में हुआ असली यौन शोषण है। इसे वह 'सेडक्शन थ्योरी' कहता था लेकिन सितंबर 1897 में उसने अपने करीबी दोस्त विल्हेम फ्लीस को एक खत लिखा। उस खत में एक चौंकाने वाला इकरार था। फ्रायड ने लिखा, 'मैं अब अपनी सेडक्शन थ्योरी में विश्वास नहीं करता।' उसने कहा कि उसके मरीज़ों की कहानियां सच्ची घटनाएं नहीं हैं बल्कि उनके अपने मन की पैदा की हुई कल्पनाएँ, यानी 'फंतासी' हैं।
अगर ये कहानियां सच्ची नहीं थीं तो ऐसी भयानक कल्पनाएं एक बच्चे के मन में आती कहां से हैं? इस सवाल का जवाब फ्रायड को अपने ही अंदर मिला। जब उसने अपने बचपन को खंगाला तो उसे अपनी मां के लिए गहरा प्यार और आकर्षण याद आया और उसे अपने पिता के लिए जलन और गुस्से की भावनाएं भी याद आईं। उसे याद आया कि कैसे वह अपने पिता को एक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखता था। उसे हैनिबल बनने का अपना वह पुराना सपना याद आया, जो उसने अपने पिता की बेइज़्ज़ती का बदला लेने के लिए देखा था। फ्रायड ने इन भावनाओं को यूनान के एक पुराने नाटक 'ओडिपस रेक्स' से जोड़ा। उस नाटक का हीरो ओडिपस अनजाने में अपने ही पिता की हत्या कर देता है और अपनी मां से शादी कर लेता है। फ्रायड ने दावा किया कि यह सिर्फ़ एक नाटक की कहानी नहीं, यह हर इंसान, ख़ासकर हर लड़के के मन की कहानी है। उसने कहा कि हर बच्चे के मन में अपनी मां को पाने और पिता को रास्ते से हटाने की एक दबी हुई इच्छा होती है।
इसी दुस्साहसी विचार को उसने नाम दिया—'ओडिपस कॉम्प्लेक्स'। उसने अपने दोस्त को लिखा, 'मैंने अपने केस में भी यही पाया है। अपनी मां के प्रति प्रेम और पिता के प्रति जलन और अब मैं मानता हूं कि यह बचपन की एक यूनिवर्सल घटना है।' पिता की मौत के दुख से शुरू हुई यह यात्रा एक ऐसे सिद्धांत के जन्म पर खत्म हुई जिसने दुनिया को हिलाकर रख दिया। फ्रायड ने अपने निजी दुख, अपनी यादों और अपनी भावनाओं को एक यूनिवर्सल थ्योरी में बदल दिया था। इस आधार पर फ्रायड ने एक किताब लिखी, 'द इंटरप्रिटेशन ऑफ़ ड्रीम्स'।
इस शोध के दौरान फ्रायड सिर्फ़ मन के अंदर चल रही कहानियों, जैसे ओडिपस कॉम्प्लेक्स को ही नहीं खोज रहा था। वह मन की पूरी बनावट का एक नक्शा तैयार करने की कोशिश कर रहा था। उसने कहा कि हमारा व्यक्तित्व तीन हिस्सों में बंटा है, जो लगातार एक-दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। पहला हिस्सा है इड (Id)- आप इसे अपने अंदर का एक जंगली जानवर या एक ज़िद्दी बच्चा समझ सकते हैं। इड हमारी सारी आदिम इच्छाओं का घर है—भूख, गुस्सा, और यौन कामनाएं। इसे बस अपनी ज़रूरतें पूरी करनी हैं, वह भी तुरंत। इसे सही, गलत, या समाज की परवाह नहीं।
दूसरा हिस्सा है सुपर-ईगो (Superego)। यह इड का ठीक उल्टा है। यह हमारे अंदर का एक सख़्त मां-बाप या एक नैतिक पुलिसवाला है। यह हमें समाज, परिवार और धर्म से मिले नियम-कानून और नैतिकता सिखाता है। यह हमें बताता है कि क्या सही है और क्या गलत, और जब हम कुछ गलत करते हैं तो यही हमारे अंदर शर्म और ग्लानि की भावना पैदा करता है। इन दोनों के बीच फंसा है तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा—ईगो। ईगो हमारे मन का मैनेजर है। उसका काम है इड की जंगली ज़िद और सुपर-ईगो के सख़्त नियमों के बीच एक समझौता कराना ताकि इंसान असल दुनिया की सच्चाइयों का सामना करते हुए जी सके। ईगो ही है जो इड से कहता है, 'तुम्हें भूख लगी है पर तुम किसी के हाथ से छीनकर नहीं खा सकते, तुम्हें इंतज़ार करना होगा।' फ्रायड के मुताबिक, एक स्वस्थ इंसान वही है जिसका ईगो इन दोनों ताकतों के बीच सही संतुलन बनाए रखता है। हमारी पूरी ज़िंदगी इसी अंदरूनी खींचतान का नतीजा है।
धोखेबाज़
20वीं सदी की शुरुआत तक फ्रायड अपने ज्यादातर सिद्धांत दे चुका था लेकिन ये विचार दुनिया तक नहीं पहुंचे थे। फ्रायड के विचारों को प्रसिद्धि मिलनी शुरू 1902 में जब वियना के कुछ मुट्ठीभर डॉक्टर, जो फ्रायड के काम में दिलचस्पी रखते थे, हर बुधवार को उसके घर के वेटिंग रूम में इकट्ठा होने लगे। इस ग्रुप का नाम पड़ा 'वेडनेसडे साइकोलॉजिकल सोसाइटी'। यहां ये लोग मरीज़ों के केस डिस्कस करते, फ्रायड के सिद्धांतों पर बहस करते लेकिन इस ग्रुप का एक अलिखित नियम था: आप बहस कर सकते हैं, सवाल कर सकते हैं पर अंत में फ्रायड ही सही होगा।
इस छोटे से ग्रुप में कई होनहार लोग थे लेकिन फ्रायड को तलाश थी एक 'उत्तराधिकारी' की। एक ऐसे वारिस की जो उसके बाद साइकोएनालिसिस के इस आंदोलन को आगे बढ़ा सके और उसे लगा कि वह वारिस उसे मिल गया है। उसका नाम था कार्ल गुस्ताव युंग। युंग स्विट्ज़रलैंड के ज्यूरिख शहर का एक नौजवान और बेहद प्रतिभाशाली साइकेट्रिस्ट था। वह हर तरह से फ्रायड के लिए परफेक्ट था। फ्रायड यहूदी था, युंग ईसाई। फ्रायड को अकादमिक दुनिया शक की निगाह से देखती थी जबकि युंग एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी क्लिनिक में काम करता था। फ्रायड को लगा कि युंग वह पुल बन सकता है जो साइकोएनालिसिस को वियना के एक छोटे से ग्रुप से निकालकर पूरी दुनिया में फैला देगा।
1907 में जब दोनों पहली बार मिले, तो उनकी बातचीत 13 घंटों तक बिना रुके चली। दोनों एक-दूसरे से बेहद प्रभावित हुए। फ्रायड ने युंग में अपना 'क्राउन प्रिंस' यानी युवराज देख लिया था और युंग ने फ्रायड में एक पिता की छवि देखी। दोनों के बीच एक बेहद गहरा पर जटिल रिश्ता शुरू हो गया। 1909 में दोनों ने एक साथ अमेरिका का दौरा किया। यह साइकोएनालिसिस के लिए एक बहुत बड़ा पल था। जिस विचार को यूरोप में लोग शक की नज़र से देखते थे, उसका अमेरिका में हीरो की तरह स्वागत हो रहा था।
जैसा अक्सर होता है, जहां गुरु होता है, वहां बगावत भी होती है। पहली बड़ी बगावत वियना के ग्रुप के अंदर से ही हुई। इसे करने वाले का नाम था अल्फ्रेड एडलर। एडलर को आप फ्रायड का पोलर अपोजिट समझते हो। काफ़ी क्रांतिकारी विचार और दिलचस्प सिद्धांत। एडलर की कहानी और उसकी फ़िलासफ़ी की चर्चा किसी एपिसोड में डिटेल में करेंगे। फ़िलहाल जानिए कि एडलर भी एक काबिल डॉक्टर था लेकिन वह फ्रायड की इस बात से सहमत नहीं था कि इंसान की हर हरकत के पीछे सिर्फ़ सेक्स की दबी हुई इच्छा होती है। एडलर का मानना था कि इंसान की असली प्रेरणा 'हीनता की भावना' से लड़ने और 'शक्ति' पाने की होती है। फ्रायड के लिए यह सिर्फ़ एक वैज्ञानिक मतभेद नहीं था। यह एक धोखा था। उसने एडलर और उसके समर्थकों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया और आख़िरकार 1911 में एडलर को ग्रुप छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। यह एक पैटर्न की शुरुआत थी: या तो आप फ्रायड के साथ हैं या आप उसके दुश्मन हैं। बीच का कोई रास्ता नहीं था।
फ्रायड के अनुयायियों के साथ उसके मतभेद सिर्फ़ सत्ता या जलन की वजह से नहीं थे। कई बार उसके काम करने के तरीकों पर भी गंभीर सवाल उठाए जाते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उसका लियोनार्डो दा विंची पर किया गया विश्लेषण। फ्रायड ने दावा किया कि वह साइकोएनालिसिस के ज़रिए किसी भी इंसान की गुत्थी सुलझा सकता है, चाहे वह ज़िंदा हो या मर चुका हो। इसी आत्मविश्वास में उसने लियोनार्डो की एक मनोवैज्ञानिक जीवनी लिखी। अपनी थ्योरी को साबित करने के लिए, फ्रायड ने लियोनार्डो के बचपन की एक याद पर ध्यान दिया, जिसमें लियोनार्डो ने लिखा था कि जब वह पालने में था तो एक पक्षी आया और उसने अपनी पूंछ से उसके होठों पर मारा।
फ्रायड के पढ़े हुए जर्मन अनुवाद में वह पक्षी एक गिद्ध था। फ्रायड ने इस एक शब्द को पकड़ लिया और उस पर अपनी पूरी थ्योरी खड़ी कर दी। उसने गिद्ध को मिस्र की पौराणिक कथाओं में मां के प्रतीक से जोड़ा और यह साबित करने की कोशिश की कि इसी एक घटना में लियोनार्डो की कला और उसकी कथित होमोसेक्सुअलिटी के राज़ छिपे हैं। यह एक दिलचस्प विश्लेषण था पर इसमें एक बहुत बड़ी खामी थी। कई साल बाद पता चला कि फ्रायड ने जो पढ़ा था, वह एक गलत अनुवाद था। लियोनार्डो ने अपनी मूल इटैलियन भाषा में 'गिद्ध' नहीं, बल्कि चील लिखा था। फ्रायड की पूरी की पूरी भव्य इमारत एक मामूली सी अनुवाद की गलती पर टिकी थी।
यह किस्सा फ्रायड के आलोचकों का सबसे बड़ा हथियार बन गया। वह कहते हैं कि यह इस बात का सबूत है कि फ्रायड एक वैज्ञानिक से ज़्यादा एक कहानीकार था। वह पहले से ही एक नतीजा सोच लेता था और फिर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपनी कहानी में फिट कर देता था, भले ही तथ्य कुछ और ही क्यों न कह रहे हों। अपने इसी अड़ियलपन के चलते फ्रायड का सबसे खास चेला, कार्ल युंग उससे अलग हो गया। युंग को भी फ्रायड की सेक्स थ्योरी से परेशानी होने लगी थी। उसकी दिलचस्पी धर्म, रहस्यवाद और पौराणिक कथाओं में ज़्यादा थी। उसे लगता था कि इंसान के मन में सिर्फ़ व्यक्तिगत इच्छाएं नहीं, बल्कि पूरी मानवता की सामूहिक यादें होती हैं।
इन दोनों के बीच तनाव इतना बढ़ गया था कि एक बार युंग की मौजूदगी में फ्रायड दो बार बेहोश हो गया। फ्रायड ने इसका मतलब निकाला कि युंग अनजाने में उसके मरने की कामना कर रहा है ताकि वह उसकी जगह ले सके। उनका रिश्ता अब दोस्ती का नहीं बल्कि सत्ता के संघर्ष का बन चुका था। आख़िरकार 1913 में चिट्ठियों की एक कड़वी लड़ाई के बाद यह रिश्ता हमेशा के लिए टूट गया। फ्रायड ने अपने सबसे काबिल चेले और अपने चुने हुए वारिस को आंदोलन से बाहर निकाल दिया।
नास्तिक
20वीं सदी का तीसरा दशक आते-आते साइकोएनालिसिस का पंथ अब पूरी दुनिया में फैल चुका था। फ्रायड अब सिर्फ़ वियना का एक डॉक्टर नहीं, बल्कि एक विश्व-प्रसिद्ध हस्ती था लेकिन जिस वक़्त वह शोहरत की बुलंदियों पर था, उसी वक़्त उसकी ज़िंदगी में एक ऐसी लड़ाई ने दस्तक दी जिसे वह किसी थ्योरी से नहीं जीत सकता था। साल 1923, फ्रायड को अपने मुंह के अंदर एक छाला महसूस हुआ। जांच में पता चला कि यह जबड़े का कैंसर है। यह उसकी स्मोकिंग की आदत का नतीजा था। वह दिन में 20 सिगार पी जाता था और अपनी इस आदत को छोड़ नहीं पाया। यह उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी और सबसे लंबी लड़ाई की शुरुआत थी। अगले 16 सालों में फ्रायड के 30 से ज़्यादा दर्दनाक ऑपरेशन हुए। उसके जबड़े का एक बड़ा हिस्सा निकाल दिया गया और उसकी जगह एक भारी-भरकम, बेहद तकलीफ़देह नकली जबड़ा लगा दिया गया। उसे 'वह मॉन्स्टर' कहता था।
इसी दौर में फ्रायड ने अपनी कुछ सबसे ज़रूरी किताबें लिखीं। अपनी किताब 'Civilization and Its Discontents' में उसने एक बेहद बेचैन करने वाला सवाल पूछा: अगर सभ्यता हमें जंगलीपन से बचाने के लिए बनी है, तो हम इतने नाख़ुश क्यों हैं?
उसका जवाब था कि सभ्यता हमसे एक क़ीमत वसूलती है। वह हमें हमारे सबसे बुनियादी स्वभाव—आक्रामकता और हिंसा को दबाने के लिए मजबूर करती है। यह दबी हुई हिंसा कहीं जाती नहीं। वह अंदर ही अंदर सुलगती रहती है और फिर किसी दिन युद्ध या नफ़रत के रूप में फट पड़ती है। फ्रायड यह सब तब लिख रहा था जब जर्मनी में एक नई, हिंसक विचारधारा सिर उठा रही थी। उसके शब्द भविष्यवाणी की तरह लग रहे थे।
मार्च 1938 में वह भविष्यवाणी वियना के दरवाज़े तक आ पहुंची। अडोल्फ़ हिटलर की नाज़ी सेना ने ऑस्ट्रिया पर कब्ज़ा कर लिया। जिस शहर को फ्रायड ने 80 साल तक अपना घर कहा था, वह रातों-रात एक दुश्मन देश बन गया। नाज़ी तूफ़ान की पहली चोट यहूदियों और बुद्धिजीवियों पर ही पड़ी। फ्रायड दोनों था। उसकी किताबों को जर्मनी के चौराहों पर जलाया गया। उसके दफ्तर पर गेस्टापो ने छापा मारा और उसकी बेटी, एना फ्रायड जो अब खुद एक नामी साइकोएनालिस्ट थी, उसे पूछताछ के लिए हेडक्वार्टर ले जाया गया।
उस दिन 81 साल का बीमार फ्रायड घंटों तक खौफ़ में इंतज़ार करता रहा। जब एना आख़िरकार घर लौटी तो फ्रायड को समझ आ गया कि अब यहां रुकना मौत को दावत देना है। फ्रायड के दोस्तों और चाहने वालों ने उसे बचाने की मुहिम छेड़ दी। इस मिशन की लीडर थी प्रिंसेस मैरी बोनापार्ट जो फ्रांस के सम्राट नेपोलियन की पड़पोती और फ्रायड की मरीज़ और दोस्त थी। उसने अपनी दौलत और असर का इस्तेमाल करके नाज़ियों से एक डील की। एक भारी रक़म चुकाने के बाद, फ्रायड और उसके परिवार को आख़िरकार वियना छोड़ने की इजाज़त मिल गई। जून 1938 में उसने आख़िरी बार अपने शहर को देखा और लंदन के लिए रवाना हो गया।
लंदन में उसका एक हीरो की तरह स्वागत हुआ। अपनी ज़िंदगी के आख़िरी साल में उसने अपनी सबसे विवादित किताब पूरी की: 'मोजेज़ एंड मोनोथिज्म'। इस किताब में एक नास्तिक यहूदी ने अपनी ही क़ौम की बुनियाद पर हमला बोल दिया। उसने दावा किया कि यहूदियों के सबसे बड़े पैगंबर, मूसा असल में यहूदी नहीं बल्कि एक मिस्र के राजकुमार थे जिनकी हत्या उनके ही अनुयायियों ने कर दी थी। यह शायद उसका आख़िरी विद्रोही काम था।
सितंबर 1939 तक कैंसर फ्रायड के शरीर पर पूरी तरह हावी हो चुका था। दर्द अब बर्दाश्त से बाहर था। उसने अपने डॉक्टर और दोस्त, मैक्स शुर को उसका वह वादा याद दिलाया जो उसने सालों पहले लिया था। उसने कहा था, 'जब वक़्त आएगा तो तुम मुझे यूं ही तड़पने नहीं दोगे।' 23 सितंबर, 1939 को डॉक्टर ने फ्रायड को मॉर्फिन का एक ओवरडोज़ दिया। उसने शांति से अपनी आंखें बंद कर लीं और वह इंसान जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी मन की पहेली को सुलझाने में लगा दी, हमेशा के लिए खामोश हो गया। उसने एक ऐसी ज़िंदगी जी जिसमें शोहरत थी, विवाद थे, दोस्तियां थीं, गद्दारियां थीं और एक ऐसी जंग थी जो उसने आख़िरी सांस तक लड़ी।
फ्रायड को कुछ लोग जीनियस मानते हैं तो कुछ अड़ियल लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि 20वीं सदी के सबसे इंपैक्टफ़ुल लोगों में फ्रायड की गिनती होगी। भले ही आज विज्ञान उसके कई सिद्धांतों को गलत ठहराता हो पर 'अनकॉन्शियस', 'ईगो' और यह ख्याल कि हमारा बचपन हमें बनाता है, ये सब उसी की देन हैं। उसने हमें हमारे मन के बारे में बात करने की एक नई ज़ुबान दी।
शायद उसका सबसे बड़ा योगदान सही जवाब देना नहीं बल्कि हमें अपने अंदर झांकने पर मजबूर करना था। उसने बताया कि हम अपनी सोच के उतने भी मालिक नहीं हैं, जितना हम गुमान करते हैं। इसीलिए आप फ्रायड को खारिज कर सकते हैं पर नज़रअंदाज़ नहीं, क्योंकि खुद को समझने का जो सफ़र उसने शुरू करवाया, वह आज भी जारी है।
और पढ़ें
Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies
CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap