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समुद्र में डूब जाए कोई देश तो क्या होगा, क्या कहता है कानून?

क्लाइमेंट चेंज के चलते समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में तमाम देश हैं जो कि इसकी वजह से डूबने वाले हैं। ऐसे में उनका भविष्य क्या होगा और कानून क्या है। खबरगांव इस लेख में इसी बात की पड़ताल करेगा।

Representational Image । Photo Credit: PTI

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: PTI

ग्लोबल वॉर्मिंग आज के समय में काफी चर्चित टॉपिक है। इसकी वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और इसलिए समुद्र के बीच में स्थित आइलैंड या तटीय इलाके में स्थित शहरों के डूबने की संभावना बढ़ती जा रही है। दुनिया के कुछ देश ऐसे हैं जो कि रोज़ाना कुछ न कुछ डूबते जा रहे हैं। एक ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जब घरों के सामने लहरें नहीं, बल्कि लहरों के बीच घर हैं। खेत नहीं बचे, हवाई पट्टी अब जलमग्न है, और स्कूलों के मैदान दलदल में बदल चुके हैं, लेकिन, यह कोई फिल्मी कल्पना नहीं है, बल्कि टुवालु (Tuvalu), मार्शल आइलैंड्स (Marshall Islands), और किरिबाती (Kiribati) जैसे प्रशांत महासागर के छोटे द्वीपीय देशों की सच्चाई बनने की संभावना है।

 

जलवायु परिवर्तन और समुद्र स्तर में वृद्धि के कारण ये देश धीरे-धीरे डूब रहे हैं। लेकिन अब सवाल सिर्फ पर्यावरण का नहीं रहा। सवाल है – अगर किसी देश की ज़मीन पूरी तरह समुद्र में समा जाए, तो क्या वह फिर भी एक देश कहलाएगा? क्या उसके पास नागरिकता, पासपोर्ट, समुद्री संसाधनों पर अधिकार और अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी रह पाएगी? खबरगांव इस लेख में इसी बात की पड़ताल करेगा।

 

इस सवाल का जवाब दुनिया के सामने आया है हाल ही में अंतरराष्ट्रीय कानून आयोग (International Law Commission - ILC) की एक सिफारिश के रूप में, जिसने कहा है कि ऐसे डूबते राष्ट्रों को भी उनका राज्य का दर्जा (Statehood) और समुद्री क्षेत्रीय अधिकार (Maritime Rights) बरकरार रहना चाहिए।

 

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डूब रहे हैं आइलैंड

IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, इस सदी के अंत तक समुद्र का जलस्तर 1 मीटर तक बढ़ सकता है। इसका सबसे ज्यादा असर निम्न-ऊंचाई वाले द्वीप राष्ट्रों पर पड़ रहा है, जैसे- टुवालु, किरिबाती और मार्शल आइलैंड। टुवालु की कुल जनसंख्या 11,000 है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से यह द्वीप हर साल 4 मिमी बढ़ रहा है। इसी तरह से किरिबाती 33 द्वीपों का एक समूह है जो कि खतरे में है। मार्शल आइलैंड के कई द्वीप भी खतरे में हैं। यहां पानी भी पीने लायक नहीं बचा है।

इन देशों में आज भी हजारों लोग रह रहे हैं, लेकिन वे जानते हैं कि 2050 तक उनका पूरा देश संभवतः नक्शे से मिट सकता है।

ज़मीन के बिना कैसे होगा देश?

परंपरागत रूप से किसी राष्ट्र को मान्यता देने के लिए मांटेविडियो कन्वेंशन के मुताबिक चार मुख्य चीजें ज़रूरी मानी जाती हैं। पहली बात कि उसकी स्थायी जनसंख्या हो, निर्धारित भू-भाग हो, एक सरकार हो और अन्य देशों से उसका संबंध हो और उसकी संप्रभुता हो।


लेकिन जब किसी देश का भू-भाग (territory) ही मिटने लगे, तो अंतरराष्ट्रीय कानून इस पर फिलहाल चुप हो जाता है। तो यहां सवाल उठता है कि क्या किसी देश को सिर्फ इसलिए राज्य की मान्यता से वंचित कर दिया जाए क्योंकि वह जलवायु परिवर्तन का शिकार है?

 

2025 में ILC (International Law Commission) ने इस विषय पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें कहा गया कि 'राज्यों को उनके डूब जाने के बावजूद उनका राजनीतिक दर्जा, समुद्री अधिकार और पहचान कायम रखनी चाहिए।'

 

इस सिफारिश का मतलब है कि अगर टुवालु जैसे देश पूरी तरह डूब भी जाते हैं, तो भी वे संयुक्त राष्ट्र के सदस्य बने रह सकते हैं, उनके नागरिकों को नागरिकता और पासपोर्ट मिलता रहेगा और उनके आसपास के समुद्री क्षेत्र पर मछली पकड़ने, तेल निकालने, और सुरक्षा के अधिकार रहेंगे।

क्यों ज़रूरी है यह पहचान और अधिकार?

डूबते द्वीपों के लिए यह केवल कानूनी मसला नहीं, बल्कि अस्तित्व की लड़ाई है। जब एक देश समुद्र में समा जाता है, तो उसके नागरिक शरणार्थी बन सकते हैं यानी कि स्टेटलेस (stateless) हो सकते हैं, उनकी आर्थिक संपत्ति (जैसे समुद्री संसाधन) पर दूसरे देश दावा कर सकते हैं और उनकी सांस्कृतिक पहचान हमेशा के लिए खो सकती है।

 

हालांकि, अगर उनके देश का दर्जा बरकरार रखा जाए, तो वे दूसरे देशों में भी रहकर अपनी सरकार का संचालन कर सकते हैं यानी कि जैसे डिजिटल गवर्नेंस के माध्यम से सरकार का संचालन कर सकते हैं। अगर उनके राष्ट्र का दर्जा रहेगा तो वे समुद्र में स्थित अपने Exclusive Economic Zone (EEZ) को बनाए रख सकते हैं और भविष्य में अगर किन्ही स्थितियों में उनकी जमीन समुद्र से बाहर हो पाती है तो उनकी ज़मीन पर उनकी वापसी का अधिकार बचा सकते हैं।

कैसा होगा इसका भविष्य?

यह बात काफी गहनता से विचार करने की है कि क्या आने वाले समय में 'Virtual States' बनाए जा सकते हैं? टुवालु सरकार ने 2022 में ऐलान किया था कि वे अपने देश की डिजिटल कॉपी बना रहे हैं – एक ऐसा मेटावर्स देश, जो भले ही भौतिक रूप से न बचे, पर ऑनलाइन अस्तित्व बनाए रखे। अगर ऐसा होता है तो टुवालु संभवतः पहला ऐसा देश होगा जो कि डिजिटल तरीके से अस्तित्व में होगा। ऐसे डिजिटल राष्ट्रों के पास ऑनलाइन सरकार, डिजिटल पासपोर्ट, और क्लाउड में सुरक्षित दस्तावेज़ होंगे। साथ ही इस देश के नागरिक भले ही किसी अन्य देश में रहें लेकिन उनके पास टुवालु का पासपोर्ट होगा।

कहां जाएंगे ये लोग?

डूबते देशों की सबसे बड़ी मानवीय चुनौती है कि इस देश के लोगों को कहां बसाया जाएगा? कुछ देशों (जैसे न्यूज़ीलैंड और फिजी) ने सीमित संख्या में लोगों को अपने यहां बसाने की अनुमति दी है। लेकिन सवाल है कि क्या ये देश सभी नागरिकों को अपने यहां बसने के लिए शरण देंगे? क्या इससे सांस्कृतिक पहचान और भाषा बच पाएगी? ऐसे शरणार्थियों को क्लाइमेट रिफ्यूजी कहा जाता है जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र में अब मांग उठ रही है। हालांकि, इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नियम कानून बनाए जा सकते हैं।

 

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भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण?

यह मुद्दा भारत के लिए भी काफी महत्त्वूपूर्ण है क्योंकि भारत में तमाम तटीय शहर है जो कि समुद्र का जलस्तर बढ़ने की वजह से डूब सकते हैं। साथ ही पड़ोसी देशों के साथ भी यह लागू होता है।

 

1. मालदीव जैसे पड़ोसी द्वीप राष्ट्रों के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध हैं। अगर वे संकट में पड़ते हैं, तो भारत की सुरक्षा नीति, समुद्री नीति और कूटनीति पर असर होगा।

 

2. भारत के खुद के तटीय राज्य – जैसे पश्चिम बंगाल, ओडिशा, गुजरात और अंडमान-निकोबार – भी समुद्री जलस्तर से प्रभावित हैं।

 

3. भारत को इन देशों की अगुवाई भी करनी चाहिए ताकि वह इन देशों की आवाज़ बन सके और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्विक मंच पर खड़ा हो।


जलवायु परिवर्तन अब सिर्फ मौसम का मसला नहीं, बल्कि कानून, पहचान और मानव अधिकारों का मुद्दा बन गया है। डूबते देशों को उनका राज्य दर्जा बनाए रखने की सिफारिश भविष्य की अंतरराष्ट्रीय नीति का बड़ा मोड़ साबित हो सकती है।

 

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