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ईरान में तेल की खोज, तख्तापलट और पहलवी साम्राज्य, पढ़िए पूरी कहानी

ईरान और इजरायल के संघर्ष के बीच रेजा पहलवी का परिवार फिर से चर्चा में है। क्राउन प्रिंस रेजा पहलवी विदेश से लगातार बयान जारी कर रहे हैं। क्या आप उनके परिवार की पूरी कहानी जानते हैं?

Pahlavi Dynasty

मोहम्मद रेजा शाह पहलवी और उनकी पत्नी फराह पहलवी, Photo Credit: Pahlavi Dynasty Website

मिडिल ईस्ट के कई देशों को अगर कृत्रिम रचना कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। दुनिया जीतने या कहें लूटने निकले यूरोपीय देशों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से इन देशों की सीमाओं को दुनिया के नक्शे पर उकेर। लेकिन ईरान की कहानी अलग है। पर्सेपोलिस के शानदार खंडहर हजारों साल पुराने वैभव की गवाही देने के लिए काफी हैं। हजारों साल पुरानी परंपराओं का वारिस, जो हमेशा विदेशी आक्रमणकारियों के निशाने पर रहा और अराजकता, दमन और पीड़ा जैसे चिह्न ईरान की विरासत में हमेशा के लिए दर्ज हो गए। जो लंबे समय तक दुनिया की महाशक्तियों की आपसी लड़ाई का अखाड़ा बना रहा। जहां कभी चीनी की कीमत को लेकर शुरू हुआ विवाद क्रांति में तब्दील हो गया तो कभी तंबाकू की वजह से बगावत हो गई। तेल के खजाने पर कब्जे की लड़ाई में तो पूरा देश ही बर्बाद हो गया और एक साम्राज्य का पतन केवल यह तय करने में हो गया कि महिलाओं के सिर ढके होने चाहिए या नहीं? 

 

साइरस, इतिहास के सबसे प्रतिभाशाली और दूरदर्शी सम्राटों में से एक, जिसने 559 ईसा पूर्व में पार्स क्षेत्र में साम्राज्य अवधारणा तैयार की।  जो बाद में फारस या पर्सिया नाम से जाना गया। इस साम्राज्य का पतन 334 ईसा पूर्व में हुआ, जब दुनिया जीतने निकला सिकंदर पर्सेपोलिस पहुंचा। जीता, लूटा और जला दिया। अगले हजार सालों तक पर्शिया पर अलग-अलग राजवंशों का शासन रहा।

 

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इसी बीच बंजर पड़ी अरब की जमीन पर एक सेना उभरी। जो न केवल हथियारों से बल्कि एक नए विचार से भी लैस थी। इस्लाम, सातवीं शताब्दी में अरब सेना फारस की ओर मुड़ी। साल 638 में अरब, पर्शिया पहुंचे। शहर लूट लिया गया। खजाना, शाही पुस्तकालय तहस-नहस कर दिया गया। फारसी, अरबों को बर्बर अशिष्ट और जंगली मानते थे लेकिन अरब अपने साथ इस्लाम का जो विचार लाए थे उसे मानने के लिए फारसियों को मजबूर होना पड़ा। फारसियों का इस्लाम, अरबों के इस्लाम से अलग था। इस व्याख्या को शियावाद कहा गया। सुन्नी अरबों से अलग। 

शिया और सुन्नी की तकरार

 

दुनिया के अधिकांश मुसलमानों में करीब 90 प्रतिशत सुन्नी परंपरा से हैं। बाकियों में से अधिकांश शिया हैं, जिनमें सबसे बड़ी संख्या ईरान में है। 16वीं शताब्दी में शियावाद का उग्र प्रसार हुआ। उग्र शिया माने जाने वाले सफवीद वंश के शाह इस्माइल ने इसका विस्तार किया। इस्माइल के ही दौर में शिया, पर्शिया का आधिकारिक धर्म बना। इस्माइल के सैनिक युद्ध में चिल्लाते हुए उतरते- 'हम हुसैन के लोग हैं और यह हमारा युग है!'

 

 

इस्माइल के शासन के दौरान, ईरान का जो हम आधुनिक स्वरूप देखते हैं उसने आकार लिया। सफवी शासकों ने 200 साल से ज्यादा शासन किया। यह फारसी कला, संस्कृति, साहित्य और आर्किटेक्चर के लिए सुनहरा दौर था। इस चमक ने पड़ोसी अफगान कबायलियों को आकर्षित किया। 18वीं शताब्दी में अफगान कबायलियों ने राजधानी इस्फहान पर हमला किया और लूट लिया। 200 साल तक शासन करने वाले सफवी वंश के शाह अब्बास अफगानों से घोड़ा मांगकर सरेंडर करने आए। अफगान भी ज्यादा दिन टिके नहीं। नादिर शाह ने उन्हें ईरान से भगा दिया। वही नादिर शाह जिसने 1738-39 में दिल्ली पर हमला किया था और लूटा था। ऐसा लूटा कि रूस और यूरोप तक लूटे गए खजाने की चर्चा थी। इसमें कोहिनूर हीरा और मयूर सिंहासन भी शामिल था। मयूर सिंहासन, आगे चलकर ईरानी राजशाही का प्रतीक बना। नादिर शाह के बाद क़जार वंश के हाथ ईरान की सत्ता आई। जिसने अठारहवीं सदी के अंत से 1925 तक ईरान पर शासन किया। क़जार राजाओं का शासन ईरान के लिए सबसे बुरा दौर था। ऐसे समय में जब पूरी दुनिया आधुनिकता की ओर बढ़ रही थी। प्राचीन परंपराओं और प्रथाओं के बीच ईरान ठहर सा गया था। 

 

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दिसंबर 1891 की उस सुबह तक के लिए तो जरूर, जब तक 16 सौ से अधिक रानियों वाले हरम में शाह की पत्नियों ने हुक्के का बहिष्कार नहीं कर दिया था। जनता ने शाह के खिलाफ बगावत कर दी। इतिहास में इसे तंबाकू विद्रोह कहा गया और यह ईरान में लोकतंत्र की पहली आहट थी। लोकतंत्र आया लेकिन कठपुतली बनकर। इसे नचाने वाले कोई और थे। ईरान, दो महाशक्तियों के आपसी टकराव का अखाड़ा बन गया था।  


संवैधानिक क्रांति

 

दुनिया के नक्शे पर ईरान दो शक्तियों के रास्ते में था। ब्रिटेन और रूस। भारत, ब्रिटिश साम्राज्य की सबसे कीमती कॉलोनी थी। जिसे ईरान, जमीन के जरिए जोड़ता था जबकि रूस के लिए यह अपनी खुली दक्षिणी सीमा के पार एक बड़े भू-भाग को नियंत्रित करने का अवसर था। क़जार वंश के राजाओं में इन महाशक्तियों का सामना करने की इच्छा शक्ति नहीं थी। 40 साल से मयूर सिंहासन पर बैठा नादिर अल-दीन शाह, अपनी विलासितापूर्ण जीवन शैली के लिए बदनाम था। जिसके हरम से 16 सौ पत्नियां थीं। सैकड़ों राजकुमार थे। जिनकी सरकारी खजाने तक सीधी पहुंच थी। शाह का सम्मान न करने वालों को कोड़े मारे जाते, तोपों से उड़ा दिया जाता, जिंदा दफन कर दिया जाता।
 
खजाना खाली हुआ तो शाह ने विदेशी कंपनियों और सरकारों को ईरान की विरासत बेचना शुरू कर दिया। ग्राहक थे ब्रिटेन और रूस।  खनिज संसाधन के अधिकार ब्रिटेन को बिके तो कैवियार मछली पालन का अधिकार रूस को। धीरे-धीरे ईरान की ज्यादातर मूल्यवान संपत्तियों पर विदेशियों का अधिकार होता जा रहा था और ईरान, ब्रिटिश और रूसी बैंकों के कर्ज में डूबता जा रहा था। जिससे लोगों में असंतोष पनप रहा था लेकिन शाह को अपने मौज-मस्ती में कोई खलल बर्दाश्त न थी। 1891 में उसने रूस के तंबाकू उद्योग को 15 हजार पाउंड में बेच दिया। ईरान धूम्रपान पसंद करने वालों का देश था। छोटे किसान उगाते और बेचते लेकिन अब तंबाकू केवल ब्रिटिश इंपीरियल टोबैको कंपनी को बेचा जा सकता था और इंपीरियल कंपनी की दुकानों से ही खरीदा जा सकता था। इसका अभूतपूर्व विरोध हुआ।  बुद्धिजीवियों, किसानों, व्यापारियों, और मौलवियों का ऐसा गठबंधन, पहले कभी ईरान ने नहीं देखा था। खुद शाह की पत्नियों और नौकरों ने धूम्रपान का सेवन बंद कर दिया। शाह के पास छूट रद्द करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। भरपाई के लिए शाह ने ब्रिटिश बैंक से कर्ज लिया।

 

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तंबाकू विद्रोह ने शाह के निरंकुश शासन के खिलाफ लोगों को एकजुट किया। राजशाही के सिद्धांत पर संदेह करने वाले लोग ईरान की संप्रभुता के लिए एकजुट हो रहे थे। फ्रांसीसी क्रांति के बारे में किताबें बांटी जा रहीं थीं। दुनियाभर की क्रांतियों और क्रांतिकारियों का बखान हो रहा था। पड़ोसी रूस में उथल-पुथल जारी था और जार निकोलस द्वितीय, संसद की मांग मानने के लिए मजबूर हो चुका था। धीरे-धीरे ईरान की त्रस्त जनता का गुस्सा, क्रांति के बारूद में तब्दील हो रही थी। बस चिंगारी की देर थी, जो 1905 में आई। 

 

नादिर की 1896 में हत्या हो चुकी थी। उसका बेटा मुजफ्फर मयूर सिंहासन पर बैठा। जो अय्याशी में अपने पिता से कम न था। 1905 में तेहरान में चीनी की कीमतों को लेकर विवाद में कुछ व्यापारियों को गिरफ्तार कर कड़ी यातना दी गई। इस घटना से लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। पिटाई का आदेश देने वाले गवर्नर को बर्खास्त करने की मांग के साथ शुरू हुआ प्रदर्शन सत्ता विरोधी आंदोलन में तब्दील हो गया। मांग हुई कि सभी मामलों में जनता की राय के लिए एक सभा बनाई जाए और फिर सारी मांगे पीछे हो गई। लोग इस एक मांग पर अड़ गए। यह मांग थी मजलिस यानी संसद की मांग। 

 

शाह को झुकना पड़ा लेकिन इस शर्त के साथ कि मजलिस से पारित कानून, शाह की मंजूरी के बाद ही प्रभावी होंगे। इसे ईरान का मैग्नाकार्टा कहा गया। दो सौ सीटों वाली मजलिस के लिए चुनाव हुए। चुनाव से इतर कुछ सदस्यों को सीधे चुना गया जिसमें अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग थे। 7 अक्टूबर, 1906 को मजलिस का पहला सत्र हुआ। किसी के पास कोई अनुभव न था। कोई राजनीतिक दल नहीं था। सरकार की शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा भी नहीं था। ऐसे में मौलवियों और प्रगतिशील सुधारकों के बीच का गठबंधन टूटने लगा और कई सारे मुद्दों पर यह टकराव में तब्दील होता गया। इस्लामिक मौलवियों और प्रगतिशील सुधारकों के बीच का यह टकराव ईरान के भविष्य में अनंत काल के लिए स्थायी होने वाला था।

 

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ईरान में लोकतंत्र का प्रयास बुरी तरह असफल साबित हुआ था लेकिन संवैधानिक क्रांति ने एक नींव रख दी थी। संविधान लिखा गया था। बहस शुरू हो गई थी, चुनाव होने लगे थे। लोगों को उम्मीद थी कि संवैधानिक व्यवस्था उन्हें गरीबी के जाल से बाहर निकालेगी लेकिन विदेशी शक्तियों की महत्वाकांक्षा और कर्ज के चंगुल में फंसे देश के लिए यह आसान न था।

 

1907 में रूस और ब्रिटेन ने ईरान को बांट लिया था। दक्षिणी प्रांतों पर ब्रिटेन का और उत्तरी प्रांतों पर रूस का नियंत्रण था। बीच की एक पट्टी न्यूट्रल थी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1919 में एंग्लो-पर्शियन समझौता हुआ। ब्रिटेन ने ईरान की सेना, खजाने, ट्रांसपोर्ट और कम्यूनिकेशन नेटवर्क पर कंट्रोल कर लिया। एंग्लो-पर्शियन समझौता, ईरान की बची-खुची संप्रभुता को अंतिम श्रद्धांजलि थी। शाह को इससे कोई फर्क न पड़ता था लेकिन विरोध के स्वर फिर से एकजुट होने लगे थे। सोवियत रूस से लगते उत्तरी प्रांत में कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई और रूस ने फिर से दखल देना शुरू किया। ईरान, ब्रिटेन और सोवियत के बीच टकराव का मैदान नजर आ रहा था लेकिन ब्रिटेन ने कुछ और ही तय कर रखा था। ब्रिटेन ने ईरान के खिलाफ उसी के हथियार से ऐसा दांव चला कि ईरान का पूरा इतिहास बदल गया। 


पहलवी साम्राज्य की कहानी

 

20 फरवरी, 1921, तेहरान का बाहरी इलाका। कोसैक ब्रिगेड के करीब डेढ़ हजार सैनिक इकट्ठा थे। उनके कमांडर ने एक भावुक भाषण दिया। कहा, हमने अपने पुरखों की जमीन की रक्षा करने में सबकुछ लगा दिया लेकिन राजधानी में बैठे कुछ मुट्ठी भर गद्दारों ने देश के खून का आखिरी बूंद तक चूस लिया है। 

 

सैनिकों में आक्रोश तीव्र था। उत्साहित थे। कमांडर के आदेश का इंतजार था। कमांडर ने देर नहीं की। अगली सुबह तेहरान में प्रधानमंत्री और सरकार के अन्य प्रमुख नेता उनकी गिरफ्त में थे।  बागी सैनिकों का सरदार शाह के पास पहुंचा। दो मांग रखी। सैयद जिया तबातबाई को प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाए और रेज़ा खान को कोसैक ब्रिगेड का कमांडर बनाया जाए। रेज़ा खान कोई और नहीं वह स्वयं था। शाह के पास न कोई विकल्प था और न ही विरोध की ताकत। तख्तापलट को अंजाम देने वाला रेज़ा खान अब कोसैक ब्रिगेड का कमांडर था। 

 

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कोसैक ब्रिगेड, ईरान की सबसे आधुनिक अनुशासित और खतरनाक यूनिट थी। खतरनाक घुड़सवारों की यह ब्रिगेड क़जार राजाओं की रक्षा के लिए रूसी अधिकारियों ने तैयार किया था लेकिन समय के साथ ये इंटर्नल फोर्स और क़जारों की अपनी प्राइवेट आर्मी में तब्दील होती गई। ईरान पर नियंत्रण के लिए कोसैक ब्रिगेड पर नियंत्रण जरूरी था। यह रूस और शाह दोनों को कमजोर करने के लिए तो जरूरी था ही, साथ में प्रधानमंत्री के तख्तापलट के लिए भी जरूरी था और इस काम के लिए ब्रिटिशर्स ने रेज़ा खान को चुना।

 

6 फीट 4 इंच लंबा रेज़ा तलवार के साथ उतना ही खतरनाक था जितनी मशीन गन के साथ। कोसैक ब्रिगेड के लिए काम करते हुए उसने स्थानीय गिरोहों और डाकुओं के खिलाफ कई ऑपरेशन्स में हिस्सा लिया था। रेज़ा, ब्रिटिशर्स के लिए परफेक्ट हथियार था। जो लंबे समय तक काम आने वाला था। रेज़ा महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। 

 

अगर वह ब्रिटेन के लिए तख्तापलट कर सकता था तो खुद के लिए भी यह काम कर सकता था। 3 महीने के भीतर ही रेज़ा ने सैयद जिया को प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटाकर खुद प्रधानमंत्री बन गया और फिर एक दिन शाह को भी चलता किया। स्वास्थ्य कारणों से शाह, ईरान से  जो बाहर गए फिर ना लौटे। मजलिस ने क़जार वंश की समाप्ति की घोषणा की। 

मॉर्डन बनने की कोशिश

 

अब रेज़ा खान के सामने सबसे बड़ी समस्या थी अपनी भूमिका तय करने की। ईरान का पॉलिटिकल सिस्टम चुनने की। तुर्की के केमाल अतातुर्क से प्रभावित रेज़ा, उन्हीं की तरह ईरान को रिपलब्कि घोषित करके खुद राष्ट्रपति बनना चाहता था लेकिन धार्मिक मौलवी इसके पक्ष में न थे। रेज़ा खान ने राजशाही जारी रखने का फैसला किया। मयूर राजसिंहासन पर बैठा और नए राजवंश घोषणा की। जिसका नाम था पहलवी। करीब 25 सौ साल पुरानी बोली, जो मुस्लिमों के आने से पहले फारसियों द्वारा बोली जाती थी। पहलवी राजवंश के पहले राजा हुए रेज़ा शाह पहलवी। 

 

ईरान के पास अब एक ऐसा नेता था जो फैसले ले रहा था। रेज़ा शाह के हिस्से डाकुओं के गिरोह को खत्म करने की उपलब्धि आई जिनका ईरान के कई हिस्सों में आतंक था। उसने सड़क, कारखाने, बंदरगाह बनवाए। लड़के-लड़कियों के लिए कॉलेज खोले। एक यूनिवर्सिटी बनाई। ईरान की एक अपनी नेशनल आर्मी बनाई।  1934 में रेज़ा शाह तुर्की की यात्रा पर गया और अतातुर्क से मिला। इस मुलाकात के दौरान उसने महसूस किया कि तुर्की तेजी से आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ रहा था। वह उसी रास्ते पर ईरान को ले जाना चाहता था। 1935 में रेज़ा शाह पहलवी ने बुर्का पर प्रतिबंध लगा दिया। स्कार्फ या दुपट्टा पहनकर सार्वजनिक रूप से उपस्थित होना अपराध बना दिया गया था। इसका विरोध करने वाले को गिरफ्तार कर लिया जाता था और उनके घूंघट को जबरदस्ती हटा दिया जाता था।  

 

धार्मिक मौलवियों ने इसका विरोध किया। रेज़ा शाह के फैसले के खिलाफ खोरासान मस्जिद में सैकड़ों लोग इकट्ठा हुए। रेज़ा शाह ने सैनिकों को भेज दिया। सैकड़ों लोग मारे गए। शाह ने परंपराओं और प्रथाओं के तले दबे ईरान को आधुनिक बनाने के प्रयास शुरू किए लेकिन यह प्रयास जबरन था। थोपा जा रहा था। ईरान को आधुनिक बनाने के अति उत्साह में रेज़ा शाह ने तो परंपराओं की परवाह की और ना ही धार्मिक भावनाओं की। जब बाकी दुनिया के नेता सुधारवादी प्रयासों के जरिए लोगों को अपने पक्ष में कर रहे थे, रेज़ा शाह ने लोगों को अपने खिलाफ कर लिया और असल सामाजिक बदलाव लाने में सफल नहीं हुआ। सुधारवादी कानून बन रहे थे लेकिन लोगों के पास आजादी नहीं थी। लोग क्या पहनना चाहते हैं- से ज्यादा यही पहनना पड़ेगा पर जोर था। प्रेस पर सेंसर था। विरोधी नेताओं की हत्या हो रही थी। शाह पर विदेशी व्यापारियों से धन उगाही और लोगों की जमीन कब्जाने के आरोप लगे। 

 

इसी दौरान दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। ब्रिटेन और रूस ईरान में घुसकर बैठे थे और रेज़ा शाह का झुकाव जर्मनी की ओर था। इसका खामियाजा उसे कुर्सी गंवाकर भुगतना पड़ा। 16 सितंबर 1941 को उसने इस्तीफा दे दिया। रेज़ा शाह के बेटे 21 साल के मोहम्मद रेज़ा को नया शाह बनाया गया। 3 साल बाद जोहान्सबर्ग से उसके मरने की खबर आई। रेज़ा शाह को एक ऐसे भ्रष्ट और निरंकुश व्यक्ति के तौर पर याद किया गया जो खुद को दूरदर्शी मानता था, जिसने आधुनिकीकरण के सतही सुधारों को क्रूरता के साथ थोपने की कोशिश की। 

ईरान में मिला तेल का कुआं

 

20वीं सदी का पहला दशक। ईरान का बंजर रेगिस्तान। इंडियन सिविल सर्विस से रिटायर ब्रिटिश इंजीनियर जॉर्ज बर्नार्ड रेनॉल्ड्स तेल खोजने निकले थे लेकिन 120 डिग्री फारनेहाइट वाली रेगिस्तान की प्रचंड गर्मी, न के बराबर मौजूद पानी और डाकुओं के खतरे से जूझते रेनॉल्ड्स की टोली को पिछले 7 सालों में मिली थी केवल निराशा और पेट की बीमारियां। यहां तक कि उनका करोड़पति फाइनेंसर विलियम नॉक्स डी’आर्सी भी दिवालिया होने के कगार पर था। डी’आर्सी ने  ईरान के शाह से 1901 में एक छूट हासिल की थी। ईरान में तेल खोजने, निकालने, रिफाइन करने और उसे बेचने की छूट। डी’आर्सी ने इसके लिए शाह को 20 हजार पाउंड दिए थे। साथ ही भविष्य में मुनाफे का 16 फीसद हिस्सा देने का वादा भी किया था लेकिन यह सब तब होता जब तेल मिलता। डी’आर्सी ने इस काम के लिए जॉर्ज रेनॉल्ड्स को ईरान भेजा था लेकिन 7 साल में कुछ हाथ न लगा तो डी’आर्सी ने उसे सर्च ऑपरेशन समाप्त करने को कहा लेकिन रेनॉल्ड्स सालों का संघर्ष ऐसे ही नहीं छोड़ने वाले थे। एक महीना और देने का फैसला किया। 

 

यह 26 मई 1908 की सुबह थी। अबादान से करीब 125 मील उत्तर-पूर्व में स्थित मस्जिद-ए-सुलेमानी नाम की जगह पर ड्रिलिंग चल रही थी। सुबह 4 चार बजे एक तेज गड़गड़ाहट हुई और चीख-पुकार मच गई। रेनॉल्ड्स अपने तंबू में सो रहा था। उठकर बाहर भागा। हवा में सल्फर की तीखी गंध फैली हुई थी और इस गंध को साफ-साफ देखा जा सकता था। हवा में ऊपर की ओर उठती हुई गंध। सड़े हुए अंडों की बदबू वाली गंध, जिसके लिए रेनॉल्ड्स पिछले 7 साल से बेताब था। यह रेनॉल्ड्स के लिए सबसे अच्छी गंध थी। यह तेल की आहट की गंध थी। 

 

रेनॉल्ड्स ने ड्रिलिंग जारी रखने का आदेश दिया।  सुबह तक तेज धार के साथ फव्वारा फट पड़ा। रेनॉल्ड्स की सात सालों की तपस्या पूरी हुई। उसने ईरान में तेल खोज निकाला था और दुनिया के सबसे बड़े तेल भंडारों में से एक के मुहाने पर खड़ा था। जो आने वाले समय में न केवल ईरान बल्कि पूरी दुनिया की हिस्ट्री, जॉग्रफी, इकॉनमिक्स के साथ-साथ पॉलिटिक्स को भी बदलने वाला था। 

बीसवीं सदी के पहले दशक तक दुनिया की महाशक्तियों को अंदाजा हो गया था कि साम्राज्य विस्तार के लिए तेल बहुत जरूरी है। भविष्य तेल में ही है। जिसके पास तेल होगा वही राज करेगा। ईरान से तेल निकालने के लिए एक नई कंपनी बनाई गई। एंग्लो-पर्शियन ऑयल कंपनी। ब्रिटिश गवर्नमेंट ने इसमें 51 प्रतिशत हिस्सेदारी हासिल कर ली। महज 2 मिलियन पाउंड खर्च करके। ईरान के तेल पर अब ब्रिटेन का नियंत्रण था। अगले कुछ सालों में एंग्लो पर्शियन कंपनी ने दर्जनों कुएं खोदे। अबादान में दुनिया की सबसे बड़ी तेल रिफाइनरी बनाई गई। 

 

विश्व युद्ध में दिखी तेल की ताकत


प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तेल की ताकत पूरी दुनिया ने देखी। तेल से चलने वाले जहाजों, विमानों और वाहनों ने युद्ध का तरीका बदल दिया। न केवल युद्ध बल्कि उद्योग और परिवहन के क्षेत्र में भी इसकी मांग बढ़ी और ब्रिटेन के मालिकाना हक वाली एंग्लो-पर्शियन ऑयल कंपनी इस मांग को पूरा कर रही थी। कंपनी के अधिकारी ब्रिटिश थे। जिनके लिए अबादान में एक नया ही शहर बसाया गया। जहां ईरानियों का प्रवेश वर्जित था। जिन ईरानियों की जमीन से तेल निकाला जा रहा था वे मजदूर थे। उनका भी अलग ही शहर आबाद हुआ। झुग्गियों का शहर। 

 

यह तेल ईरान को अमीर और ताकतवर बना सकता था लेकिन उसके पास न तो तकनीक थी और ना ही इच्छाशक्ति। जब दुनिया की ताकतें तेल खोज रही थीं ईरानी शाह भोग-विलास के लिए संसाधन बेचने में लगे हुए थे। विदेशी मदद के बिना तेल खोजना, निकालना और बेचना संभव न था लेकिन ईरानी शाह चाहते तो मुनाफे में 16 प्रतिशत हिस्सेदारी से बेहतर डील कर सकते थे। 1928 में रेज़ा शाह ने ब्रिटेन पर रॉयल्टी देने में हेराफेरी का आरोप लगाया। 4 साल बाद डी’आर्सी को मिली 60 साल की छूट को रद्द करने का ऐलान कर दिया लेकिन जैसे ही ब्रिटिश अधिकारी ऐक्टिव हुए, पलट गए। छूट को अगले 32 सालों के लिए और बढ़ा दिया। हां, इतना जरूर किया कि कंपनी का नाम बदलकर एंग्लो-ईरानियन ऑयल कंपनी करवा लिया क्योंकि रेज़ा शाह को पर्शिया नाम पसंद नहीं था। इससे ना तो ईरान को कोई फायदा होना था, ना ही मजदूरों को।

 

मार्च 1946 में मजदूरों ने हड़ताल कर दी। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था। ईरान की गद्दी पर रेज़ा शाह का बेटा मोहम्मद रेज़ा शाह पहलवी विराजमान था। लोगों को बदलाव की उम्मीद थी लेकिन ब्रिटिश हुकूमत को दुनिया के कई देशों में ऐसे आंदोलनों को कुचलने का अच्छा खासा अनुभव था। बांटो और राज करो की नीति का पालन करते हुए एक नकली यूनियन बनवाकर मजदूरों को आपस में ही लड़वा दिया। दंगे भड़क गए और काफी लोग मारे गए। 

 

1947 में मजलिस ने कानून बनाकर विदेशी कंपनियों को कोई छूट देने पर रोक लगा दिया। साथ ही उस छूट पर फिर से विचार करने का निर्देश दिया जिसके तहत एंग्लो ईरानियन ऑयल कंपनी काम कर रही थी। यह आदेश ईरान की मजलिस और ब्रिटेन के बीच टकराव के एक नए दौर की शुरूआत थी। जिसका नेतृत्व मजिलस में एक धुर राष्ट्रवादी नेता कर रहा था। नाम- मोहम्मद मोसादेक। 

 

मोसादेक के पिता ईरान के प्रतिष्ठित परिवार से थे और उनके पिता लंबे समय तक नादिर अल शाह के वित्तमंत्री रहे। उसके रिश्तेदारों ने संवैधानिक क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं थीं। मोसादेक ने रेज़ा शाह के साथ वित्त और विदेश मंत्री के तौर पर काम किया लेकिन फिर रेज़ा शाह से अलगाव हो गया और मोसादेक ने शाह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। मजलिस उसका मंच बन गया। मोसादेक ने ब्रिटेन, रूस और बाद में अमेरिका का भी विरोध किया। कहा कि अपने घर को ईरानियों से बेहतर कोई नहीं चला सकता। अगर विदेशियों की गुलामी फायदेमंद होती तो कोई भी देश आजादी की लड़ाई न लड़ता। 

संसाधनों का दोहन और बंटवारा

 

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ईरान के संसाधनों का जमकर दोहन हुआ। ईरान, ब्रिटेन और रूस दोनों के लिए सैन्य ठिकाना था। एक बार फिर से दोनों ने ईरान को बराबर भागों में बांट लिया था। पुराना शाह जा चुका था।  लोगों को उम्मीद थी कि युद्ध खत्म होने और नए शाह के आने के बाद हालात बदलेंगे लेकिन ऐसा कुछ न हुआ तो बगावत के स्वर फूटने लगे। 

 

गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए छटपटा रहे ईरान का राष्ट्रवादी आंदोलन जब आकार ले रहा था, तब सिंहासन पर विराजमान युवा मोहम्मद रेज़ा शाह का ध्यान स्पोर्ट्स कार्स, रेस के घोड़ों और फिल्मी अभिनेत्रियों पर था। जमीन पर चल रही चीजों से बिल्कुल बेखबर। शाह बिल्कुल सब चंगा सी वाले मोड में था। एंग्लो-ईरानियन ऑयल कंपनी को मिली छूट में सुधार की मांग जारी थी। मांग यह थी कि ब्रिटेन, तेल से होने वाली कमाई में ईरान को बराबर का हिस्सेदार बनाए।  मुनाफा आधा-आधा बंटे। जैसा कि कई देशों में अमेरिकी कंपनियां कर रहीं थीं और अगर ब्रिटेन ऐसा करने से मना करता है तो एंग्लो ईरानियन ऑयल कंपनी को नेशनलाइज कर दिया जाए। यानी कि कंपनी पर पूरी तरह से ईरान की सरकार का नियंत्रण हो।  

 

मोसादेक को अब इस्लामिक मुल्लाओं का भी समर्थन मिलने लगा था। आयतुल्ला खुमैनी जैसे कुछ विरोधी भी थे जो यह मानते थे कि मोसादेक ने इस्लाम त्याग दिया है इसलिए उनका साथ नहीं दिया जा सकता लेकिन बहुत सारे इस्लामिक मौलवी थे जो ईरान से पश्चिमी ताकतों को बाहर निकालने के समर्थक थे। नेशनल फ्रंट के लिबरल नेताओं और इस्लामिक मुल्लाओं का साथा आना सहज नहीं था। खुद दोनों पक्षों के नेता इससे बहुत खुश नहीं थे लेकिन एक बड़े उद्देश्य के लिए उन्होंने अपनी असहमतियों को किनारे रख दिया था। 

 

दिसंबर के अंत में सऊदी अरब से खबर आई कि अरेबियन अमेरिकन ऑयल कंपनी यानी अरामको ने सऊदी अरब के साथ मुनाफे को आधा-आधा बांटने का सौदा किया है। ईरान में भी इसी तरह की मांग उठी लेकिन ब्रिटेन ने इसे खारिज कर दिया। 15 मार्च 1951 को मजलिस में नेशनलाइनजेशन के मुद्दे पर वोट पड़े। शाह से अनुपस्थित रहने का वादा करने वाले कई सदस्यों ने भी नेशनलाइजेशन के सपोर्ट में वोट किया। सर्वसम्मति से एंग्लो ईरानियन ऑयल कंपनी को नेशनलाइज करने का प्रस्ताव पास हो गया। इस जीत का उत्सव मनाया गया। मोसादेक नायक बन चुके थे लेकिन ब्रिटेन झुकने को तैयार न था और जरूरत पड़ने पर सैन्य कार्रवाई की तैयारी भी की जाने लगी। अबादान में ब्रिटिश युद्धपोतों ने डेरा डालना शुरू कर दिया। ब्रिटेन ने मोहम्मद रेज़ा शाह से सैयद जिया को प्रधानमंत्री नियुक्त करने के लिए कहा। जिसे 30 साल पहले उनके पिता रेज़ा खान ने पहले प्रधानमंत्री बनाया और फिर हटा दिया था। आज्ञाकारी सेवक की तरह मोहम्मद रेज़ा शाह ने सहमति जता दी लेकिन असल खेल तो मजलिस में होना था। 

 

28 अप्रैल 1951 को मजलिस, सैयद जिया की उम्मीदवारी पर बहस के लिए इकट्ठा हुई थी। सब की निगाहें मोसादेक पर थीं लेकिन जब पूछा गया कि बहस कौन शुरू करना चाहता है, मोसादेक चुपचाप बैठे रहे। बहस की शुरुआत जमाल इमामी ने की। जो ब्रिटिश समर्थक माने जाते थे। उन्होंने मोसादेक की जमकर आलोचना की। मजलिस को बाधित करने और देश को पंगु बनाने के लिए जिम्मेदार बताया। कहा कि मोसादेक केवल कमियां निकालना जानते हैं। कभी खुद प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करके देखें, यह काम कितना मुश्किल है। 

 

मोसादेक उठ खड़े हुए और बोले कि वह प्रधानमंत्री बनने के प्रस्ताव से सम्मानित और आभारी हैं और पूरी विनम्रता के साथ इसे स्वीकार करेंगे। मोसादेक पहले कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल चुके थे और कई बार सरकार का नेतृत्व करने का सुझाव ठुकरा चुके थे। किसी को उम्मीद न थी कि वह इस पद के इच्छुक है। तभी इमामी ने उन्हें चुनौती दी थी। मजलिस में सन्नाटा छा गया। सब स्तब्ध थे। स्पीकर ने वोटिंग का आदेश दिया। बहुमत मोसादेक के पक्ष में था। मोसादेक ने एंग्लो-ईरानियन ऑयल कंपनी के खातों की जांच के लिए संसदीय समिति बनाए जाने, मुआवजे की रकम का मूल्यांकन करने और एक नई नेशनल ईरानियन ऑयल कंपनी बनाने के प्रस्ताव रखे जो उसी दिन पास हो गए। मजलिस में जो हो रहा था अकल्पनीय था। ईरानी राष्ट्रवाद और शाह की सत्ता का मुखर विरोध करने वाले मोसादेक अब ईरान की सत्ता के शिखर पर थे। 

ऑपरेशन अजाक्स

 

प्रधानमंत्री मोसादेग ने अपने वादे को पूरा किया। एंग्लो-ईरानियन ऑयल कंपनी को नेशनलाइज कर दिया गया। ईरानियों ने अबादान में कंपनी की विशाल रिफाइनरी पर कब्जा कर लिया। ईरान के राष्ट्रवादी उत्साहित थे। मोसादेक राष्ट्रीय नायक बन चुके थे। 1952 में टाइम मैगजीन ने मोसादेक को परसन ऑफ द ईयर घोषित किया। ऑयल कंपनी के बाद मोसादेक ने शाह के खिलाफ अभियान की शुरूआत की। सेना को अपने नियंत्रण में लेना जरूरी था। मोसादेक वॉर मिनिस्ट्री अपने पास रखना चाहते थे लेकिन शाह इसके लिए तैयार न था। 16 जुलाई 1952 को मोसादेक ने इस्तीफा दे दिया। नेशनल फ्रंट के समर्थक सड़कों पर उतर गए ।21 जुलाई 1952 का दिन इतिहास में ब्लडी मंडे के तौर पर दर्ज हुआ।  प्रदर्शन हिंसक हो गया और 69 लोग मारे गए। शाह को झुकना पड़ा। मोसादेक की प्रधानमंत्री के तौर पर वापसी हुई। मोसादेक ने वॉर मिनिस्ट्री अपने पास रखी। शाह की जुड़वा बहन प्रिंसेस अशरफ को देश से बाहर भिजवा दिया और मोहम्मद रेज़ा शाह पहलवी की विदेशी डिप्लोमेट्स के साथ डायरेक्ट बातचीत बंद करवा दी। मोसादेक ने सेना के बजट में कटौती की और बड़ी संख्या में अफसरों को जबरन रिटायर करवाया।  मोसादेक के पास जनता का समर्थन था और अब शाह में जनता या मोसादेक के खिलाफ जाने की हिम्मत न थी। 

 

इधर ब्रिटेन ने पलटवार का प्रयास किया। ईरान पर कई सारे कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए। मामले को इंटरनेशनल कोर्ट तक ले गया। यूनाइटेड नेशन्स में ब्रिटेन ने एंग्लो-ईरानियन ऑयल कंपनी के ईरान पर परोपकार गिनाए। जिनसे ईरान को खूब लाभ हुआ था। यूनाइटेड नेशन्स में ईरान का पक्ष रखने पहुंचे प्रधानमंत्री मोसादेक ने ईरानियों के साथ होने वाले भेदभाव और गरीबी के सबूत रखे। साफ शब्दों में कहा कि ब्रिटेन के पास ईरान के तेल और ईरानियों के शोषण का कोई अधिकार न था। इंटरनेशनल कोर्ट से ब्रिटेन को झटका लगा। उसकी याचिका खारिज हो गई थी। 

 

ब्रिटेन के पास अब एक ही रास्ता था। किसी भी तरह मोसादेक को रास्ते से हटाना। मोसादेक को इसकी भनक लग गई और अक्टूबर 1952 में उन्होंने ईरान में ब्रिटिश दूतावास बंद करने का आदेश दे दिया। ब्रिटिश डिप्लोमेट्स को ईरान छोड़ना पड़ा। इसमें ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी MI-6 के एजेंट्स भी शामिल थे। अब ब्रिटेन के पास उम्मीद की एक ही किरण थी। अमेरिका। 

 

ब्रिटेन ने अमेरिका से मदद मांगी लेकिन प्रेसिडेंट ट्रूमैन, CIA का इस्तेमाल सत्ता परिवर्तन के लिए करने के पक्षधर नहीं थे। हालांकि, कुछ ही महीनों बाद आने वाले नए अमेरिकी राष्ट्रपति का ऐसा विचार न था। प्रेसिडेंट आइजनहावर का रवैया ट्रूमैन के ठीक उलट था। इसलिए नहीं कि मोसादेक ने ईरान के तेल उद्योग से ब्रिटेन को खदेड़ दिया था बल्कि इसलिए कि ईरान में पड़ोसी रूस की कम्यूनिस्ट विचारधारा हावी न हो जाए। ईरान के पास तेल का अथाह भंडार, एक सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टी और सोवियत संघ के साथ लगती लंबी सीमा थी। अमेरिका के पास हालात अपने पक्ष में करने का मौका था, अन्यथा यह सोवियत के पक्ष में भी जा सकता था। एक और ‘चीन’ तैयार हो सकता था। यह शीत युद्ध का दौर था और अमेरिकी हर परिस्थिति को अमेरिका वर्सेज रूस के नजरिए से देख रहे थे। ऐसे में ईरान में तख्तापलट को किसी भी कीमत पर जरूरी माना गया। प्रेसिडेंट आइजनहावर को तख्तापलट के लिए राजी करने में डलेस ब्रदर्स जॉन फोस्टर डलेस और एलन डलेस की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जो कुछ ही समय बाद अमेरिका के विदेश मंत्री और CIA डायरेक्टर बनने वाले थे। 

मोसादेक को हटाने का प्लान फेल क्यों हुआ?

सत्ता में आते ही आइजनहावर ने मोसादेक को हटाने की मंजूरी दे दी थी। CIA ने इस ऑपरेशन को नाम दिया ऑपरेशन अजाक्स (TPAJAX)। इसे पूरा करने की जिम्मेदारी मिली कर्मित किम रूजवेल्ट को। जो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के पोते थे। कर्मित रूजवेल्ट जुलाई 1953 में ईरान पहुंचे। और पहुंचते ही काम पर लग गए। 

 

तेहरान में CIA स्टेशन चीफ रोजर गोइरन ने ईरानी एजेंट्स का एक ऐसा नेटवर्क तैयार किया था जिसका काम ईरान में सोवियत के खिलाफ प्रोपगैंडा फैलाना और हिंसा भड़काना था। इसमें 100 से ज्यादा एजेंट्स थे, जिन पर CIA सालाना 1 मिलियन डॉलर खर्च करता था। इन एजेंट्स का कोड नेम Bedamn था। जिसका मतलब होता है, किसी के बुरे की कामना करना, लानत देना। 

 

रूजवेल्ट ने CIA ऑपरेटिव्स के इस सीक्रेट नेटवर्क को मोसादेक के पीछे लगा दिया। इसमें नेता, अधिकारी, धर्मगुरु, पत्रकार और अपराधी भी शामिल थे। इनका काम मोसादेक की निंदा करना था। अखबारों, सराकारी दफ्तरों, धार्मिक स्थलों से लेकर सड़क तक प्रधानमंत्री मोसादेक के खिलाफ माहौल बनाने के प्रयास हो रहे थे। प्लान यह था कि एक बार मोसादेक के खिलाफ माहौल तैयार हो जाता तो शाह की ओर से उनकी बर्खास्तगी का ऐलान कर दिया जाता और जनरल फ़ज़लुल्लाह ज़ाहेदी, को नया प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाता। जो CIA के पे-रोल पर थे। रूजवेल्ट के एजेंट हर उस शख्स पर पैसा लगा रहे थे जो मोसादेक के खिलाफ था। अगस्त के पहले हफ्ते में तेहरान सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे थे। अखबारों में मोसादेक की आलोचना वाले आक्रामक लेख छप रहे थे। 

 

मोसादेक को कभी इस्लाम विरोधी तो कभी कम्युनिस्ट झुकाव और कभी शाह के सिंहासन पर कब्जे का इच्छुक बताया जाने लगा। यहां तक कि रूजवेल्ट के एजेंट मोसादेक के नाम पर इस्लामिक धर्मगुरुओं को खूब धमकाते ताकि इस्लामिक मुल्लाओं और उनके समर्थकों को मोसादेक के खिलाफ खड़ा किया जा सके। तैयारी पूरी थी लेकिन ऐन वक्त पर मोहम्मद रेज़ा शाह ने मोसादेक को बर्खास्त करने से इनकार कर दिया। 32 साल के मोहम्मद रेज़ा शाह फैसले लेने के मामले में काफी कमजोर थे। वह अपरिपक्व और अकेले भी थे। उन्हें यह भी डर था कि अगर दांव उल्टा पड़ा तो वह कहीं के नहीं रह जाएंगे क्योंकि मोसादेक के खिलाफ कई बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी। 

 

रूजवेल्ट ने उसे मनाने के लिए पहले उसकी बहन अशरफ को यूरोप से बुलाया लेकिन बात न बनी। फिर आए जनरल एच। नॉर्मन श्वार्ज़कॉफ। जिन्होंने 1940 के दशक का अधिकांश समय ईरान में एक स्पेशल मिलिट्री रेजिमेंट का नेतृत्व करते हुए बिताया था लेकिन शाह तैयार न हुआ। अंत में रूजवेल्ट ने खुद शाह से मिलने का फैसला किया। शाह के पास संदेश भिजवाया गया कि अमेरिकी प्रेसिडेंट आइजनहावर और ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल की ओर से एक सीक्रेट एजेंट उनसे मिलना चाहता है। रूजवेल्ट एक कार में छिपकर शाही पैलेस पहुंचे क्योंकि उनकी मौजूदगी की खबर अगर बाहर जाती तो पूरा ऑपरेशन फेल हो सकता था। रूजवेल्ट, 6 साल पहले भी शाह से मिल चुके थे। वह उन्हें देखकर चौंका। रूजवेल्ट ने बताया कि वह ब्रिटेन और अमेरिकी सीक्रेट सर्विस की ओर से वहां काम कर रहे थे। उन्होंने शाह को बताया कि उनके पास कोई और विकल्प नहीं है। अमेरिका और ब्रिटेन यही चाहते हैं। 

 

शाह को भरोसे में लेने के लिए उन्होंने एक कोडवर्ड भी बताया ताकि शाह को यह भरोसा हो जाए कि ब्रिटेन और अमेरिका ने ही उन्हें भेजा है। रूजवेल्ट ने अगली रात को BBC की ओर से अपने प्रसारण में हर रोज की तरह ‘अब यह आधी रात है’ कि बजाय ‘अब यह ठीक आधी रात है’ कहा जाएगा। यह चर्चिल का आदेश है। 

 

मोहम्मद रेज़ा शाह को रूजवेल्ट पर भरोसा था फिर भी वह हिचकिचा रहा था। शाह और रूजवेल्ट अगली कई रात छिप-छिपकर मिलते रहे। जब तक कि रूजवेल्ट ने मना नहीं लिया। इस शर्त पर कि उसे तेहरान छोड़कर किसी सुरक्षित जगह पर रहने का विकल्प दिया जाए। ताकि अगर कोई भी गड़बड़ होती है वह फौरन देश से बाहर निकल जाए। शाह ने मोसादेक को बर्खास्त करने और जनरल फ़ज़लुल्लाह ज़ाहेदी को नया प्रधानमंत्री घोषित करने के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिया। 

 

15 अगस्त की शाम रूजवेल्ट, ईरान के चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल रियाही के घर के सामने से गुजरे तो मुस्कुरा रहे थे। अगर सब प्लानिंग के मुताबिक हुआ तो जनरल रियाही को कुछ ही घंटों में जेल में होना था। यह ऑपरेशन का पहला स्टेप था। इधर रूजवेल्ट के सेफहाउस पर इकट्ठा अमेरिकी एजेंट्स ने जश्न मनाना शुरू कर दिया। रूजवेल्ट ने जनरल रियाही को गिरफ्तार करने के लिए कर्नल निसारी को भेजा। जो शाही दरबार का वफादार था और मोसादेक से नफरत करता था लेकिन अति उत्साह में नासिरी लापरवाह हो गया। जब वह रात करीब 11 बजे जनरल रियाही के घर पहुंचा तो घर खाली था। उसे कुछ भी असामान्य नहीं लगा और वह बेपरवाही से अपने सैनिकों के साथ मोसादेक के घर की ओर बढ़ गया। जहां एक और सैन्य टुकड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी। ईरान का भविष्य इस बात पर तय होना था कि कौन सी टुकड़ी पहले मोसादेक के घर पहुंचती है। रात करीब 1 बजे मोसादेक की बर्खास्तगी वाला फरमान लेकर नासिरी उनके घर पहुंचा लेकिन जैसे ही वह अपनी गाड़ी से उतरा, अचानक से रियाही के सैनिक प्रकट हुए और उसे गिरफ्तार कर लिया। नासिरी ने देर कर दी थी। जनरल रियाही ने उसे गद्दार घोषित किया, उसकी वर्दी उतारने का आदेश दिया। मोसादेक को गिरफ्तार करने पहुंचा कर्नल खुद गिरफ्तार हो चुका था। 

सुबह तक कोई खबर न आई। रूजवेल्ट समझ गए। रेडियो तेहरान ने 7 बजे आधिकारिक बयान पढ़ा। विदेशी ताकतों की तख्तापलट की कोशिश नाकाम हो चुकी थी। मोसादेक ने देश को संबोधित किया। शाह पर विदेशी ताकतों की मदद से तख्तापलट की नाकाम कोशिश का आरोप लगाया। शाह ने जैसे ही यह अनाउंसमेंट सुना, अपनी पत्नी के साथ बगदाद भाग गया। 

एक और कोशिश, फिर तख्तापलट

 

तेहरान में कई एजेंट्स और साजिशकर्ता गिरफ्तार हो गए थे। जो बचे अंडरग्राउंड हो गए। कुछ अमेरिकी दूतावास में और कुछ सेफ हाउसेज में। रूजवेल्ट को तत्काल ईरान छोड़ने का आदेश आ चुका था लेकिन रूजवेल्ट का इरादा कुछ और ही था। 16 अगस्त को तेहरान की सड़कों पर विद्रोहियों की तलाश में छापेमारी जारी थी और इसका मास्टरमाइंड रूजवेल्ट उन्हीं सड़कों पर खुलेआम घूम रहा था। या यूं कहें कि कुछ समय बाद इस साजिश के दो सबसे बड़े चेहरे एक साथ थे। जनरल जाहेदी, जिन्हें अब तक प्रधानमंत्री की शपथ ले लेनी थी, सबसे बड़ा भगोड़ा घोषित हो चुके थे। अब संघर्ष जान बचाने की थी। रूजवेल्ट ने जनरल जाहेदी से सीधे पूछा- क्या एक और कोशिश के लिए तैयार हो? बिना किसी झिझक के जाहेदी ने कहा, हां वह तैयार हैं। 

 

रूजवेल्ट ने जाहेदी को एक सेफहाउस तक पहुंचाया और अमेरिकी दूतावास में अपने वार स्टेशन पर वापस लौटे। अब बारी Bedamn के खतरनाक नेटवर्क को आजमाने की थी। रूजवेल्ट ने शाह के आदेश की दोनों प्रतियों, जिसमें मोसादेक को हटाने और जाहेदी को प्रधानमंत्री नियुक्ति करने का लिखित आदेश था बंटवाना शुरू कर दिया। अखबारों के पहले पन्ने पर इसे छपवाया गया। साथ में एक झूठी कहानी भी कि मोसादेक ने शाह की गद्दी हड़पने की कोशिश की ताकि यह दिखाया जा सके कि सत्ता परिवर्तन वैध था। यह शाह का अधिकार था। प्लान का दूसरा स्टेप सड़क पर बड़ी संख्या में भीड़ जुटाना और अराजकता फैलाना था। 

 

तख्तापलट की पहली कोशिश असफल होने के बाद रूजवेल्ट अपने स्तर पर फैसले ले रहे थे। उनके पास वाशिंगटन या लंदन से मंजूरी लेने का समय नहीं था। न ही वहां किसी को खबर थी कि क्या चल रहा था। रूजवेल्ट को अपने भरोसेमंद एजेंट्स पर पूरा भरोसा था। जिसमें 3 रशीदियन ब्रदर्स प्रमुख थे। जिन्होंने तेहरान की अखबारों में खबरों के छपने से लेकर सड़कों पर उत्पात का पूरा इंतजाम कर रखा था। अमेरिकी साजिश से अनजान मोसादेक ने सुरक्षा बलों को दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दे दिया। 19 अगस्त की सुबह तेहरान के लिए असाधारण थी। मस्जिदों और चौराहों पर हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठा थी। सड़कों पर शाह जिंदाबाद के नारे गूंज रहे थे। प्रदर्शनकारी सरकारी दफ्तरों, अखबारों के दफ्तरों पर कब्जा करते आगे बढ़ रहे थे। इसमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जो किसी न किसी वजह से मोसादेक से नाराज थे। बाकी भाड़े के प्रदर्शनकारी तो थे ही। इसी बीच एक एजेंट रूजवेल्ट के पास एक वाशिंगटन से आया संदेश लेकर पहुंचा। जिसमें कड़े शब्दों में लिखा था कि रूजवेल्ट,  तुरंत ईरान से निकल जाए। रूजवेल्ट यह संदेश पढ़कर हंस पड़ा। रूजवेल्ट ने उसे जवाब के साथ वापस भेजा कि जीत नजदीक है। थोड़ी ही देर में रेडियो तेहरान पर प्रदर्शनकारियों ने कब्जा कर लिया। ऐलान हुआ। मोसादेक की सरकार गिर गई है। नए प्रधानमंत्री फजलुल्लाह जाहेदी अब पद पर हैं।

 

रूजवेल्ट, जेहादी के पास बधाई देने पहुंचे तो बाहर उत्साहित समर्थकों की भीड़ टैंक लेकर आ चुकी थी। रूजवेल्ट पीछे के रास्ते से निकल गए और चुपचाप, उत्साही भीड़ के साथ टैंक पर सवार होकर जाते जाहेदी को देखते रहे। मोसादेक के वफादार सैनिकों ने प्रतिरोध की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। मोसादेक घर से भाग गए थे। विजयी सैनिक तलाशी के बाद लौट गए। दंगाइयों ने घर लूट लिया और आग के हवाले कर दिया।  

 

चार दिन पहले, जाहेदी भगोड़ा था और मोसादेक प्रधानमंत्री। अब जाहेदी प्रधानमंत्री और मोसादेक भगोड़ा। मोहम्मद रेज़ा शाह की वापसी हुई। एक विजयी सम्राट की तरह। जिस गुमनामी के साथ रूजवेल्ट 4 हफ्ते पहले आए थे उसी के साथ वापस लौट गए। मोसादेक ने कुछ दिनों बाद सरेंडर कर दिया। कोर्ट में उन्होंने कहा, मेरा एकमात्र अपराध, ईरान के तेल को दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य के राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव से मुक्त कराना था। फैसला पहले से तय था। तीन साल की जेल और आजीवन नजरबंदी। ईरान में एंग्लो-ईरानियन ऑयल कंपनी की वापसी हुई। साथ में अमेरिकी तेल कंपनियां भी आईं। 

इंकलाब-ए-सफेद 

 

मोसादेक प्रकरण ने शाह को काफी कुछ सिखाया था। अब वह चौकन्ना था और तैयार भी। उसे ब्रिटेन और अमेरिका का संरक्षण भी था। शाह, अपनी कमजोर शासक वाली छवि बदलने में जुट गया। अपने विरोधियों पर कहर बनकर टूटा। CIA की मदद से एक खूंखार सीक्रेट एजेंसी SAVAK की स्थापना हुई। CIA ने इस एजेंसी को पैसा, ट्रेनिंग और इन्फ्रास्ट्रक्चर सब दिया। एक समय पहलवी शाह के लिए करीब 5 हजार SAVAK एजेंट काम कर रहे थे। ये एजेंट्स शाह के विरोधियों की निगरानी करते थे। जरूरत पड़ने पर उन्हें खत्म करने या टॉर्चर करने से भी नहीं हिचकते थे। हजारों की संख्या में राजनीतिक विरोधी जेल में थे। 

 

1950 के दशक के आखिर तक मोहम्मद रेज़ा शाह अपने पिता की लाइन के एजेंडे पर वापस लौटा। ईरान को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने का एजेंडा। इसी क्रम में 1963 में मोहम्मद रज़ा शाह ने इंकलाब-ए-सफेद यानी वाइट रेवॉल्यूशन का ऐलान किया। वाइट रेवॉल्यूशन एक व्यापक सुधार कार्यक्रम था। जिसका उद्देश्य ईरान को एक आधुनिक, औद्योगिक और वेस्टर्न स्टाइल वाला देश बनाना था। तेल का पैसा आ ही रहा था तो शाह ने ईरान को मॉडर्न बनाने की ठानी। भूमि सुधार के एलान किए। जमींदारों से जमीन लेकर कम कीमत पर ऐसे लोगों को दिया गया जिनके पास जमीन न थी। बड़े पैमाने पर रोड, रेलवे और डैम बनाए गए। पढ़े-लिखे युवाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में पढ़ाने के लिए भेजा गया। यूनिवर्सिटी और टेक्निकल इंस्टीट्यूट्स का विस्तार हुआ। ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में एजुकेशन और हेल्थ इंफ्रास्ट्क्चर डेवलप किया गया।

 

उद्यमों को बढ़ावा दिया गया। शाह की ओर से उठाए गए इन सुधारवादी कदमों का ज्यादातर लोगों ने स्वागत किया। इन बदलावों का सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिला लेकिन कुछ ऐसे फैसले भी थे जिनका व्यापक विरोध भी हुआ। खासतौर पर कट्टरपंथी इस्लामिक मौलवियों द्वारा। इसमें सबसे प्रमुख था महिलाओं की आजादी और समानता के अधिकार का फैसला। शाह ने महिलाओं को भी पुरुषों की तरह मतदान और चुनाव लड़ने का अधिकार दे दिया था। साथ में नौकरी और शिक्षा में प्राथमिकता का ऐलान भी किया था। महिलाएं अब वकील भी बन सकती थीं और जज भी। शादी, तलाक और बच्चों की कस्टडी के कानूनों में सुधार किए गए। इतना ही नहीं पर्दा यानी हिजाब को भी वैकल्पिक कर दिया गया था। यूरोपियन ड्रेस को प्रमोट किया गया। तेहरान की सड़कों पर बड़ी संख्या में वेस्टर्न ड्रेस पहले खुले बालों में घूमती महिलाएं देखी जा सकती थीं। कुछ इसी तरह का फैसला मोहम्मद रेज़ा शाह के पिता रेज़ा शाह ने भी लिया था। जिसकी कीमत उन्हें सत्ता से हाथ धोकर और निर्वासित होकर चुकानी पड़ी थी। ठीक वैसी ही परिस्थितियां मोहम्मद रेज़ा शाह के सामने भी आने वालीं थीं। ग्रामीण और रुढ़िवादी लोग हिजाब छोड़ने और पश्चिमी कपड़ों को बढ़ावा देने से नाराज थे। शिया धर्मगुरुओं, खासतौर पर अयातुल्लाह खुमैनी ने वाइट रेवॉल्यूशन को इस्लामिक मूल्यों के खिलाफ बताया। वे महिलाओं के अधिकारों, पश्चिमीकरण, गैर-मुस्लिमों की स्थानीय पदों पर नियुक्ति और भूमि सुधार के विरोधी थे। उनके भाषणों ने उन्हें शाह के धार्मिक और राजनीतिक विरोध का चेहरा बना दिया। खासतौर पर ग्रामीण और धार्मिक लोगों के बीच वे खूब लोकप्रिय हुए। 3 जून 1963 को कुम शहर के फैजिया मदरसा में उन्होंने शाह के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिया। शाह को यजीद के समान बताया। 

खुमैनी की गिरफ्तारी और हंगामा

 

दो दिन बाद 5 जून 1963 को खुमैनी को गिरफ्तार कर लिया गया। खुमैनी की गिरफ्तारी ने आग में घी का काम किया। कुम में विद्रोह की स्थिति बन गई। हजारों लोग सड़कों पर उतर गए। दंगे भड़क गए। सैकड़ों लोग मारे गए। अगस्त में खुमैनी जेल से छूटे। नवंबर 1964 में फिर से गिरफ्तार हुए। अमेरिका और शाह के खिलाफ बयानबाजी की वजह से। इस बार खुमैनी को ईरान से निर्वासित कर दिया गया। खुमैनी, पहले तुर्की, फिर इराक और फिर फ्रांस में रहे। खुमैनी ने देश के बाहर शाह के खिलाफ लोगों को इकट्ठा किया। फंड रेजिंग भी की। उनके भाषण टेप्स और कैसेट्स के जरिए ईरान पहुंचते रहे। जिन्होंने लोगों को शाह के खिलाफ भड़काने में अहम भूमिका निभाई। शाह के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में अब महिलाएं बुर्का पहनकर आने लगीं थीं। यह शाह के शासन के विरोध का प्रतीक बन गया था। 

 

70 का दशक तक आते-आते शाह के प्रति लोगों में नाराजगी काफी बढ़ चुकी थी। भ्रष्टाचार, निरंकुशता और राजनीतिक अराजकता से लोग ऊब चुके थे। इसी बीच 1971 में शाह ने एक भव्य उत्सव का ऐलान किया। पर्सियन एम्पायर के 25 सौ साल पूरे होने का उत्सव। यह उत्सव अक्टूबर 1971 में पर्सेपोलिस में आयोजित किया गया था, जो ऑकेमेनिड साम्राज्य की प्राचीन राजधानी हुआ करती थी। जिसकी स्थापना साइरस द ग्रेट ने की थी। इस उत्सव के लिए पर्सेपोलिस में 30 किलोमीटर के इलाक़े को ख़ाली करवाया गया। पेड़ लगाए गए। एक रनवे बनाया गया। तेहरान से पर्सेपोलिस तक एक 600 किलोमीटर की रोड बनाई गई। शामियानों को सजाने के लिए इतना रेशम लगा था कि ज़मीन पर फैला दें तो 37 किलोमीटर तक पहुंच जाए। करीब 10 हज़ार पेड़ लगाए गए। जिनमें चहचहाने के लिए 50 हज़ार गौरैया यूरोप से लाई गई। पेरिस के सबसे महंगे रेस्त्रां के सबसे अच्छे शेफ़ खाना बनाने आए। 200 वेटर स्विट्जरलैंड से बुलाए गए। पेरिस से एयर लिफ्ट करके बर्तन लाए गए। पार्टी 3 दिन तक चली। इसमें 65 देशों के राष्ट्राध्यक्ष और उनके प्रतिनिधि शामिल हुए। खर्चा आया, 100 मिलियन डॉलर। आज के हिसाब से लगभग पांच हज़ार करोड़ रुपये। 

 

इस उत्सव के जरिए शाह, ईरान के प्राचीन इतिहास के साथ अपने शासनकाल में हुई आधुनिक तरक्की को दिखाना चाहता था। शाह ने इस उत्सव के माध्यम से नए निवेशों को आकर्षित करने, अंतरराष्ट्रीय संबंधों को मजबूत करने और ईरान को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने का प्रयास तो किया ही था। साथ में ईरान को इस्लामिक पहचान से बाहर निकालने का प्रयास भी किया लेकिन शाह का दांव उल्टा पड़ा। ईरान की बड़ी आबादी अब भी गरीबी में जी रही थी। इतनी विलासिता और फिजूलखर्ची वाला आयोजन लोगों के घावों पर नमक लगाने जैसा था। यूनिवर्सिटी के छात्रों ने इसके खिलाफ जमकर विरोध-प्रदर्शन किया। धार्मिक मौलवियों ने भी इस आयोजन की खूब आलोचना की। 

 

शाह के परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे। तेल की कीमतें बढ़ रहीं थीं। साथ में महंगाई, बेरोजगारी और अमीर-गरीब के बीच की खाई भी बढ़ती जा रही थी। सेंसरशिप और बोलने की आजादी की मांग हो रही थी। हिजाब और अन्य धार्मिक मुद्दों पर विरोध तो था ही। शाह समर्थकों को लगा कि आयतुल्लाह खुमैनी के खिलाफ प्रोपगैंडा ऐसी स्थिति में उनके लिए मददगार हो सकता है।

 

9 जनवरी 1978 को सरकार समर्थित एक अखबार में आयतुल्लाह खुमैनी के बारे में अपमानजनक बातें लिखी गईं। उन्हें ब्रिटिश एजेंट बताया गया। खुमैनी के ईरानी होने को भी चुनौती दी गई और उन्हें भारतीय मूल का बताया गया। पूरा लेख खुमैनी के बारे में अपमानजनक बातों से भरा हुआ था। खुमैनी समर्थकों ने इस आर्टिकल के पीछे शाह को जिम्मेदार बताया और विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। दांव उल्टा पड़ गया था। कूम शहर में खुमैनी समर्थकों की भीड़ सड़क पर थी। पुलिस की फायरिंग में काफी प्रदर्शनकारी मारे गए। इन प्रदर्शनकारियों को खुमैनी समर्थकों ने शहीद बताया और 40वें दिन फिर से तबरीज में प्रदर्शन किया। तबरीज में भी पुलिस ने गोलियां चलाईं और लोग मारे गए। तबरीज में मारे गए लोगों के 40वें दिन यज्द में प्रदर्शन हुए। हिंसक प्रदर्शन और लोगों की मौत का यह सिलसिला काफी दिनों तक जारी रहा। 
 
इसी बीच अगस्त 1978 में एक ऐसी घटना हुई जिसने शाह की विदाई तय कर दी। अबादान शहर के रेक्स सिनेमा हॉल में आग लग गई। यह आग बाकायदा प्लानिंग के साथ लगाई गई थी। हॉल के सारे दरवाजों को बाहर से बंद करके ताकि कोई बाहर न निकल सके। इतना ही नहीं फिल्म देख रहे लोगों पर पेट्रोल फेंक कर आग लगाई गयई। इस घटना में कम से कम 370 लोगों की मौत हुई। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में आंकड़ा 400 के पार का था। शुरुआत में इसके पीछे शाह की सीक्रेट सर्विस SAVAK को जिम्मेदार बताया गया। सड़कों पर भारी संख्या में लोग उतर गए और हिंसक विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया। शाह समर्थकों ने इस घटना से पल्ला झाड़ लिया और इसके पीछे इस्लामिक चरमपंथियों के होने का आरोप लगाया। जो सिनेमा को वेस्टर्न कल्चर का हिस्सा बताते थे और खुलकर विरोध करते थे। 
 
विरोध प्रदर्शन तेज होता देख शाह ने 8 सितंबर को मार्शल लॉ का ऐलान कर दिया। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी तेहरान के जालेह स्क्वॉयर पर इकट्ठा हुए थे। सेना ने इन प्रदर्शनकारियों पर खुलेआम गोलियां बरसाईं। जलेह स्क्वॉयर की सड़कें युवाओं की लाशों से पटी पड़ीं थीं। खुमैनी ने इस फायरिंग में हजारों लोगों की मौत का दावा किया जबकि सरकारी आंकड़ा 64 से 100 लोगों का है। 8 सितंबर 1978 को ईरान के इतिहास में ब्लैक फ्राइडे के नाम से जाना गया। 

 

सब कुछ शाह के खिलाफ जा रहा था। इसी बीच ऑयल रिफाइनरी मे हड़ताल शुरू हो गई। फिर फैक्ट्रियों में, यूनिवर्सिटियों, रेल और खदानों में भी। अक्टूबर-नवंबर में पूरा देश ठप सा हो गया। दिसंबर तक आते-आते विरोध-प्रदर्शन की घटनाएं और तेज हो गईं। तेहरान की सड़कों पर पूरी तरह से प्रदर्शनकारियों ने कब्जा कर लिया। 16 जनवरी 1979 को मोहम्मद रेज़ा शाह पहलवी अपनी पत्नी के साथ कैंसर के इलाज के बहाने देश से बाहर चले गए। फिर कभी वापस न लौटे। 1 फरवरी 1979 को खुमैनी ईरान लौटे। जनता ने दिल खोलकर उनका स्वागत किया। शाह का राज खत्म हुआ। खुमैनी सुप्रीम लीडर चुने गए। इतिहास की किताब में यह घटना ईरान की इस्लामिक क्रांति के तौर पर दर्ज हुई।  

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