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पाकिस्तान की किताबों में आजादी के बारे में क्या पढ़ाया जाता है?

भारत और पाकिस्तान आजाद होने से पहले एक ही थे। दोनों देशों के लोगों ने मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ी लेकिन पाकिस्तान की किताबों में अलग ही इतिहास पढ़ाया जा रहा है।

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पाकिस्तान के एक स्कूल का एक क्लासरूम, एक तेरह साल का बच्चा। हाथ में उसकी सोशल स्टडीज़ की किताब। किताब में एक चैप्टर है- 'जंग-ए-आज़ादी, 1857'। उस चैप्टर में एक लाइन लिखी है: '1857 की जंग-ए-आज़ादी, जिसे मुसलमानों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद समझकर लड़ा, वह हिंदुओं की ग़द्दारी की वजह से नाकाम हो गई।'

 

एक बच्चे के लिए यह सिर्फ़ एक लाइन नहीं है। यह इतिहास का वह पहला सबक है, जो उसके दिमाग में 'दूसरे धर्म' की एक तस्वीर बनाता है। तस्वीर एक ग़द्दार की। एक धोखेबाज़ की लेकिन यहीं एक बड़ा सवाल उठता है। एक पैराडॉक्स है। अगर यह एक 'इस्लामी जिहाद' था, तो इसकी पहली चिंगारी मंगल पांडे ने क्यों जलाई? वह तो एक हिंदू थे। अगर हिंदू ग़द्दार थे, तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई किसके ख़िलाफ़ लड़ रही थीं? और सबसे बड़ा सवाल। अगर यह सिर्फ़ मुसलमानों की जंग थी तो सारे क्रांतिकारी बहादुर शाह ज़फ़र के झंडे के नीचे क्यों लड़ रहे थे? वही बहादुर शाह ज़फ़र, जो अपने फ़रमान में 'हिंदुओं और मुसलमानों', दोनों से साथ आने की अपील कर रहे थे।

 

तो सवाल ये है कि यह कहानी गढ़ी क्यों गई? पाकिस्तानी इतिहासकार के. के. अज़ीज़ ने इसे 'तारीख़ का क़त्ल' (Murder of History) कहा था। इसका मतलब पाकिस्तान में ही इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले थे। फिर यह सब किया क्यों गया? अलिफ लैला की इस कड़ी में पढ़िए कि पाकिस्तान के स्कूलों में 1947 का कौन सा सच पढ़ाया जाता है। इस कहानी को समझने के लिए, हम इतिहास की तीन परतों को खोलेंगे। पहली परत: कैसे एक साझी लड़ाई को 'धोखे' की कहानी बनाया गया। दूसरी परत: 'दो क़ौमी नज़रिए' की वह थ्योरी कैसे गढ़ी गई, जो कहती थी कि हिंदू-मुसलमान कभी एक नहीं हो सकते और तीसरी परत: बंटवारे के क़त्लेआम का इल्ज़ाम सिर्फ़ एक तरफ़ कैसे डाला गया?

 

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वह जंग जिसमें 'हिंदू' गद्दार बताए गए

 

इस कहानी की बुनियाद को समझने के लिए, हमें सबसे पहले यह देखना होगा कि पाकिस्तान की किताबें आजादी की लड़ाई की शुरुआत कैसे करती हैं। वे उस पहली और सबसे बड़ी जंग, 1857 की क्रांति को किस नज़र से देखती हैं। पाकिस्तान की नौवीं क्लास की 'पाकिस्तान स्टडीज़' की किताब में लिखा है, जिसे पंजाब टेक्स्टबुक बोर्ड ने पब्लिश किया है: 'बर्रे-सग़ीर (सबकॉन्टिनेंट) के मुसलमान ही पहले लोग थे जो अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ उठे जबकि हिंदुओं ने अंग्रेज़ी राज का स्वागत किया।'

 

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यहां 1857 की क्रांति की बात हो रही है। पाकिस्तानी टेक्स्ट बुक्स के मुताबिक, यह क्रांति इसलिए फेल हुई क्योंकि हिंदू गद्दार थे जबकि सच यह था कि 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर में एक अंग्रेज़ अफ़सर पर पहली गोली चलाने वाला सिपाही एक मुसलमान नहीं था। मंगल पांडेय - हिंदू थे।

 


 
10 मई, 1857 को मेरठ में जब बगावत शुरू हुई तो उसमें हिंदू और मुसलमान सिपाही, दोनों बराबर थे। वे सब मिलकर एक ही नारा लगा रहे थे: 'मारो फिरंगी को' और इन सबने अपना लीडर माना एक मुसलमान को- आख़िरी मुग़ल बादशाह, बहादुर शाह ज़फ़र।


पाकिस्तान में इतिहास को दोबारा लिखने की यब कोशिश सिर्फ़ 1857 तक नहीं रुकी। आज़ादी के आंदोलन में सबसे आगे रही इंडियन नेशनल कांग्रेस के बारे में पाकिस्तानी किताबें कहती हैं: 'इंडियन नेशनल कांग्रेस, जिसमें हिंदुओं का दबदबा था, उसने कभी भी मुसलमानों के कॉज़ को ईमानदारी से सपोर्ट नहीं किया।' यह दावा कितना खोखला है, इसे समझने के लिए हमें कांग्रेस के शुरुआती दिनों में चलना होगा। क्या कांग्रेस के सारे प्रेसिडेंट हिंदू थे? नहीं। इसके तीसरे प्रेसिडेंट, बदरुद्दीन तैयबजी, एक मुसलमान थे। दादाभाई नौरोजी, जो तीन बार प्रेसिडेंट बने, एक पारसी थे और तो और, ख़ुद मोहम्मद अली जिन्ना ने अपनी पॉलिटिक्स कांग्रेस से शुरू की थी। सरोजिनी नायडू ने तब उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा एम्बेसडर कहा था।

 

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इसका सबसे बड़ा सबूत है 1916 का 'लखनऊ पैक्ट'। यह एक ऐतिहासिक डील थी, जिसमें बाल गंगाधर तिलक की लीडरशिप में कांग्रेस और जिन्ना की लीडरशिप में मुस्लिम लीग ने मिलकर अंग्रेज़ों के सामने अपनी डिमांड्स रखीं। इसी डील में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की सबसे बड़ी मांग मान ली, यानी मुसलमानों के लिए अलग चुनावी सीटें लेकिन पाकिस्तानी किताबें इन फैक्ट्स पर पर्दा डाल देती हैं। वे सीधे 1937 के चुनावों पर छलांग लगाती हैं। इन चुनावों में कांग्रेस को ज़बरदस्त जीत मिली और उसने कई सूबों में सरकार बनाई। मुस्लिम लीग बुरी तरह हार गई। इस हार ने जिन्ना और लीग को हिला दिया। उन्हें समझ आ गया कि मुसलमान अभी भी उनके साथ नहीं हैं। अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पाने के लिए, लीग ने एक नया हथियार बनाया - प्रोपेगैंडा।

 

इसी प्रोपेगैंडा का सबसे बड़ा डॉक्यूमेंट थी 'पीरपुर रिपोर्ट'। नवंबर 1938 में मुस्लिम लीग ने एक कमेटी बनाई, जिसका काम था कांग्रेस के राज वाले सूबों में मुसलमानों पर हो रहे 'ज़ुल्म' की घटनाओं को इकट्ठा करना। इस रिपोर्ट ने छोटी-छोटी लोकल घटनाओं और अफ़वाहों को एक ऑर्गेनाइज़्ड 'हिंदू साज़िश' का हिस्सा बताकर पेश किया। रिपोर्ट में इल्ज़ाम थे कि कांग्रेस सरकारें मुसलमानों को नौकरियों में हिस्सा नहीं दे रहीं, उर्दू को दबाकर हिंदी थोपी जा रही है, स्कूलों में 'वंदे मातरम' गाने पर मजबूर किया जा रहा है, मस्जिदों के सामने बाजे बजाए जाते हैं और अज़ान और गाय की क़ुर्बानी पर बैन लगा दिया गया है। 

 

यह एक पॉलिटिकल मास्टरस्ट्रोक था। इसने एक आम मुसलमान के दिल में डर पैदा कर दिया जबकि उस वक़्त के अंग्रेज़ गवर्नरों ने लिखा कि उन्हें मुसलमानों पर किसी ऑर्गेनाइज़्ड ज़ुल्म के कोई सबूत नहीं मिले। कांग्रेस प्रेसिडेंट राजेंद्र प्रसाद ने जिन्ना को एक रिटायर्ड अंग्रेज़ जज से निष्पक्ष जांच करवाने का ऑफ़र भी दिया लेकिन जिन्ना ने इसे ठुकरा दिया। बलूचिस्तान की आठवीं क्लास की किताब का यह हिस्सा देखिए, यह पीरपुर रिपोर्ट की सीधी नकल लगता है: 'स्कूलों में बच्चों को गांधी की तस्वीर को सलाम करने पर मजबूर किया जाता था। मुसलमानों पर ज़ुल्म किया गया, उन्हें गंदा और ज़ालिम कहा गया। मस्जिदों के सामने नमाज़ के वक़्त बाजे बजाए जाते थे।'

 

'पीरपुर रिपोर्ट' के यही इल्ज़ाम, आज 80 साल बाद भी, पाकिस्तान की टेक्स्टबुक्स में 'ऐतिहासिक तथ्य' की तरह पढ़ाए जाते हैं और इसी के आधार पर यह नतीजा निकाला जाता है कि बंटवारा कोई ट्रेजेडी नहीं, बल्कि एक डिवाइन विक्ट्री थी। पाकिस्तान के पंजाब बोर्ड की एक किताब कहती है: 'पाकिस्तान का बनना बर्रे-सग़ीर के मुसलमानों के लिए सबसे बड़ी नेमत थी। इसने उन्हें हिंदुओं की ग़ुलामी से बचाया।' लाखों लोगों की मौत का दर्दनाक इतिहास, वह एक बच्चे के लिए 'हिंदुओं की ग़ुलामी से मिली आज़ादी' की कहानी बन जाता है। इस सोच की बुनियाद सिर्फ़ कहानियां नहीं हैं। एक थ्योरी है, जो पाकिस्तान के फॉर्मेशन की नींव में डाली गई है। एक ऐसा नज़रिया जो कहता है कि हिंदू और मुसलमान कभी दोस्त हो ही नहीं सकते थे।

 

पाकिस्तान का इतिहास कितना झूठा?

 

एक साझी लड़ाई को 'मुस्लिम संघर्ष' बना दिया गया। इस झूठे इतिहास को सच साबित करने के लिए एक मज़बूत दलील की ज़रूरत थी। वह दलील थी - 'दो क़ौमी नज़रिया'। यह ऐसा आइडियोलॉजिकल सीमेंट है जिससे पाकिस्तान की पूरी इमारत को जोड़ा गया है। बलूचिस्तान टेक्स्टबुक बोर्ड की पांचवीं क्लास की किताब बच्चों को सिखाती है: 'इस्लाम में कोई कास्ट सिस्टम नहीं है, जबकि हिंदू समाज बंटा हुआ है।' 10 साल के बच्चे के लिए यह एक तुलना है, जो उसे सिखाती है कि उसका धर्म बेहतर है।

 

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यह इमेज और गहरी होती है जब पंजाब टेक्स्टबुक बोर्ड की दसवीं क्लास की उर्दू की किताब कहती है: 'क्योंकि मुस्लिम धर्म, कल्चर और सोशल सिस्टम ग़ैर-मुसलमानों से अलग है, इसलिए हिंदुओं के साथ सहयोग करना असंभव है।' यहां हिंदू धर्म को सिर्फ़ अलग नहीं, बल्कि एक ख़तरे की तरह पेश किया जा रहा है। एक ऐसा आक्रामक धर्म जो इस्लाम को निगल जाना चाहता था। पाकिस्तान के इतिहास को 20वीं सदी से सीधे सातवीं आठवीं सदी तक ले जाया जाता है।
 
कहानी की जड़ें मोहम्मद बिन क़ासिम तक खोजी जाती हैं। उसे 'पहला पाकिस्तानी' कहा जाता है। इसके अलावा, किताबों में यह पढ़ाया जाता है कि उर्दू सिर्फ़ मुसलमानों की ज़बान थी और कांग्रेस ने जानबूझकर हिंदी को थोपा ताकि इस्लामी कल्चर को मिटाया जा सके। कुछ किताबें तो इतिहास को इस हद तक बदल देती हैं कि वे औरंगज़ेब जैसे मुग़ल शासकों को 'पाकिस्तान का शासक' बताती हैं।

 

ये सारे नैरेटिव इतिहास नहीं हैं। ये पॉलिटिकल आविष्कार हैं, जो वक़्त के साथ, ज़रूरत के हिसाब से गढ़े गए। जिन्ना की पॉलिटिक्स हमेशा 'End justifies the means' के फ़ॉर्मूले पर चली। उनकी शुरुआत एक भारतीय राष्ट्रवादी के तौर पर हुई थी। 1906 में जब उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन की, तो वह एक ऐसे भारत में यकीन करते थे जहां धर्म, राजनीति पर हावी न हो। उस दौर का उनका एक भाषण है: 'अगर 7 करोड़ मुसलमान किसी बात को नहीं मानते, तो क्या वह इस देश में लागू हो सकती है? यह देश न हिंदुओं से चलेगा, न मुसलमानों से। यह इस देश के लोगों से चलेगा।'

 

जिन्ना की पॉलिटिक्स में बदलाव महात्मा गांधी की एंट्री के बाद आना शुरू हुआ। जिन्ना पार्लियामेंट की बहसों और क़ानूनी दांव-पेंच के माहिर थे, वहीं गांधी जनता के बीच से आंदोलन खड़ा करने में यकीन रखते थे। गांधी के आने के बाद, आप एक साफ़ लकीर खींच सकते हैं, जहां जिन्ना अलग होते दिखते हैं। आज़ाद भारत में गांधी पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगते हैं जबकि जिन्ना ख़ुद को मुस्लिम लीडर बताते हुए, गांधी को हिंदुओं का लीडर कहते थे। गांधी अक्सर 'राम राज' की बात करते थे। जिन्ना ने इसके ठीक उल्टा जाकर 'नए मदीना' का आइडिया रखा।

 

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इतिहासकार वेंकट धुलिपाला अपनी किताब 'Creating a New Medina' में बताते हैं कि यूपी में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के आइडिया को एक मज़हबी सपने की तरह बेचा। एक नारा दिया गया: 'पाकिस्तान का मतलब क्या? ला इलाहा इल्लल्लाह।' आम मुसलमानों को बताया गया कि यह चुनाव 'इस्लाम' और 'कुफ़्र' के बीच की जंग है। पाकिस्तान एक 'नई मदीना' होगा। मुस्लिम लीग ने यूपी और बंगाल के मुस्लिम किसानों और कारीगरों के बीच यह डर फैलाया कि आज़ाद भारत में हिंदू महाजनों और व्यापारियों का दबदबा होगा और वे उनका शोषण करेंगे। पाकिस्तान को एक ऐसे सपने की तरह बेचा गया जहां उन्हें इस आर्थिक ग़ुलामी से 'निजात' मिलेगी।

 

ये सारे डर और जज़्बाती नारे जब सड़कों पर उतरे तो वही हुआ जिसका डर था। ख़ून बहा, 10 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए। डेढ़ करोड़ से ज़्यादा बेघर हुए। हज़ारों औरतों को अगवा किया गया। यह एक सामूहिक ट्रेजेडी थी लेकिन जब इस ट्रेजेडी का इतिहास लिखा गया, तो कहानी को बहुत लीनियर बना दिया गया। इस कहानी में एक ज़ालिम था और एक मज़लूम। कहानी का विलेन नंबर 1: लॉर्ड माउंटबेटन। बच्चों को पढ़ाया जाता है कि भारत के आख़िरी वायसरॉय, लॉर्ड लुइस माउंटबेटन, एक बेईमान रूलर था। उसकी नेहरू से दोस्ती थी और इसी दोस्ती के चलते, उसने जानबूझकर पाकिस्तान के साथ धोखा किया। उसने जून 1948 की जगह दस महीने पहले, अगस्त 1947 में ही एक जलते हुए मुल्क को दो टुकड़ों में काट दिया। यह एक साज़िश थी ताकि पाकिस्तान अपने पैरों पर खड़ा ही न हो सके।

 

कहानी का विलेन नंबर 2: रेडक्लिफ़। दूसरा इल्ज़ाम लगाया जाता है 'रैडक्लिफ़ लाइन' पर। सर सिरिल रैडक्लिफ़, एक अंग्रेज़ वकील जो पहले कभी हिंदुस्तान नहीं आया था उसे एक मुल्क को चीरने का काम सौंपा गया। पाकिस्तानी टेक्स्टबुक्स ये नैरेटिव बनाती हैं कि माउंटबेटन ने रैडक्लिफ़ पर दबाव डालकर, आख़िरी वक़्त पर नक्शे बदलवा दिए। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिया जाता है पंजाब के गुरदासपुर ज़िले का। यह एक मुस्लिम-मेजोरिटी ज़िला था लेकिन इसे भारत को दे दिया गया ताकि भारत को कश्मीर तक पहुंचने का एक ज़मीनी रास्ता मिल सके लेकिन असली कहानी ज़्यादा कॉम्प्लिकेटेड है। यह सच है कि गुरदासपुर भारत को मिला लेकिन यह भी सच है कि बंगाल में चिटागोंग हिल ट्रैक्ट्स का इलाक़ा, जिसकी 97% आबादी बौद्ध और हिंदू थी, उसे पाकिस्तान को दे दिया गया।

 

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बंटवारे से जुड़ी असली ट्रेजेडी सिर्फ़ ज़मीन का बंट जाना नहीं था। लाखों लोगों का क़त्ल हुआ। लाखों बेघर हुए लेकिन पाकिस्तानी टेक्स्टबुक्स में इस हिंसा का एकतरफ़ा ब्योरा है। वहां क़त्लेआम की कहानियां हैं लेकिन उनमें ज़ालिम हमेशा हिंदू और सिख हैं और पीड़ित हमेशा मुसलमान। सच क्या है? सच यह है कि यह एक दोतरफ़ा उन्माद था। इसकी शुरुआत अगस्त 1946 में कलकत्ता में हुई, जब मुस्लिम लीग के 'डायरेक्ट एक्शन डे' पर हज़ारों हिंदुओं का क़त्लेआम हुआ। जवाब में हिंदुओं ने भी मुसलमानों को मारा। यह आग नोआखाली पहुंची, जहां मुसलमानों ने हिंदुओं पर ज़ुल्म किए। इसकी प्रतिक्रिया बिहार में हुई, जहां हिंदुओं ने मुसलमानों को मारा और फिर पंजाब जला। पश्चिमी पंजाब में सिखों और हिंदुओं का सफ़ाया किया गया, तो पूर्वी पंजाब में मुसलमानों से भरी ट्रेनों को काटा गया। यह एक ऐसी आग थी जिसमें दोनों तरफ़ के लोग जल रहे थे और दोनों तरफ़ के लोग ही आग लगा रहे थे लेकिन एक देश को अपनी पहचान बनाने के लिए एक साफ़-सुथरी कहानी चाहिए होती है। एक कहानी जिसमें 'हम' हमेशा सही थे, और 'वह' हमेशा ग़लत।

हीरो जो भुला दिए गए

 

पाकिस्तान की तारीख़ की किताबों में एक हीरो है। क़ायदे-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना और एक विलेन है- महात्मा गांधी। इस्लामाबाद के फेडरल टेक्स्टबुक बोर्ड की किताब कहती है: 'गांधी का सो-कॉल्ड अहिंसा, मुसलमानों को हिंदुओं के जाल में फंसाने का एक टूल था।' किताबें ये कभी नहीं बतातीं कि उस दौर में हज़ारों मुसलमान और दर्जनों मुस्लिम संगठन थे जो जिन्ना और बंटवारे के सख़्त ख़िलाफ़ थे।

 

मौलाना आज़ाद और ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान तो बड़े नाम हैं ही लेकिन उनकी आवाज़ अकेली नहीं थी। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद, जो देवबंदी उलेमा का सबसे बड़ा संगठन था, वह कांग्रेस के साथ खड़ा था। वह 'यूनाइटेड नेशनलिज़्म' की बात कर रहे थे। उनका मानना था कि एक सेक्युलर और एकजुट हिंदुस्तान में मुसलमानों के अधिकार ज़्यादा सुरक्षित रहेंगे। ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस, जो मुस्लिम बुनकरों की आवाज़ थी, उसने भी बंटवारे का ज़ोरदार विरोध किया। उनका तर्क था कि पाकिस्तान बनने से उनका इकनॉमिक स्ट्रक्चर तबाह हो जाएगा, क्योंकि उनके बाज़ार और कच्चे माल के सोर्स पूरे हिंदुस्तान में फैले थे। इसके अलावा, ऑल इंडिया शिया पॉलिटिकल कॉन्फ्रेंस जैसे संगठनों को भी डर था कि सुन्नी-मेजोरिटी पाकिस्तान में उनके अधिकारों को दबाया जाएगा। इन सभी की आवाज़ को 'ग़द्दार' कहकर दबा दिया गया और इतिहास से मिटा दिया गया।

 

इसी तरह, पाकिस्तानी किताबों को पढ़कर ऐसा लगता है कि आज़ादी सिर्फ़ बैठकों और बातचीत से मिली। इस कहानी में उन क्रांतिकारियों के लिए कोई जगह नहीं है जिन्होंने आज़ादी के लिए अपनी जान दे दी। भगत सिंह का नाम इन किताबों में नहीं मिलेगा। सुभाष चंद्र बोस का ज़िक्र नहीं मिलेगा। आज़ाद हिंद फ़ौज (INA) की क़ुर्बानी का कोई ज़िक्र नहीं मिलेगा। क्यों? क्योंकि इन क्रांतिकारियों की कहानी, उस नैरेटिव को तोड़ देती है जो कहता है कि आज़ादी की लड़ाई सिर्फ़ 'मुसलमानों' ने लड़ी। भगत सिंह एक आर्यसमाजी सिख परिवार से थे, खुद धर्म के खिलाफ थे लेकिन वह उस हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए फांसी पर चढ़ गए जहां ज़्यादातर लोग धर्मभीरु हैं। सुभाष चंद्र बोस ने जब आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो उसका नारा था - 'इत्तेफ़ाक़, एतमाद, क़ुर्बानी'। उनकी फ़ौज में शाह नवाज़ ख़ान, गुरबख्श सिंह ढिल्लों और प्रेम सहगल जैसे हिंदू, मुस्लिम, सिख, सब एक साथ लड़ रहे थे।

 

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अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने की एक वजह आज़ाद हिंद फ़ौज के सिपाहियों पर दिल्ली के लाल क़िले में चलाया गया मुक़दमा भी थी। इस मुक़दमे ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी के भारतीय सिपाहियों के बीच असहजता तो पैदा कर ही दी थी। अंग्रज़ों को तब अपनी फौज में एक टाइम बॉम्ब नज़र आने लगा, जो कभी न कभी फटता। यह कहानी पाकिस्तानी बच्चों को नहीं सुनाई जाती क्योंकि यह कहानी बताती है कि आज़ादी किसी एक क़ौम, एक पार्टी या एक नेता की देन नहीं थी। वह एक साझा सपना था।
  
पाकिस्तान की सरकारी किताबों ने इतिहास की एक नई कहानी गढ़ी। जिसका एक ही मकसद दिखाई देता है - एक दुश्मन बनाना। हर देश ख़ुद को एक कहानी सुनाता है, एक 'नेशनल नैरेटिव'। यह कहानी एक पहचान बनाती है। पाकिस्तान 'दो क़ौमी नज़रिए' के आइडिया पर बना था। उस आइडिया को सही ठहराने के लिए, एक ऐसे इतिहास की ज़रूरत थी जो यह साबित कर सके कि वह आइडिया हमेशा से सही था। इस प्रोसेस में फैक्ट्स को तोड़ा-मरोड़ा गया और एक दुश्मन गढ़ा गया क्योंकि एक 'हम' की पहचान बनाने का सबसे आसान तरीक़ा एक 'वह' को बनाना होता है।

 

इस पूरी पड़ताल का मकसद किसी देश को नीचा दिखाना नहीं है। मकसद सिर्फ़ यह समझना है कि इतिहास कैसे लिखा और इस्तेमाल किया जाता है। यह हमें सिखाता है कि हमें अपनी ख़ुद की इतिहास की किताबों को भी एक क्रिटिकल नज़र से पढ़ना चाहिए क्योंकि सच अक्सर उन पन्नों के बीच की ख़ाली जगहों में छिपा होता है।

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