ट्रंप, पुतिन और नेतन्याहू का गुरु! आखिर कौन था निकोलो मैकियावेली?
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• NOIDA 15 Aug 2025, (अपडेटेड 15 Aug 2025, 3:01 PM IST)
निकोलो मैकियावेली एक ऐसे शख्स रहे जिनके विचारों से ट्रंप, पुतिन और नेतन्याहू जैसे नेता प्रभावित हुए हैं। क्या आप जानते हैं कि मैकियावेली के संदेश क्या थे?

मैकियावेली की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
चीन में शी जिनपिंग भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ी मुहिम छेड़ते हैं। देखने में यह एक नेक काम लगता है लेकिन असल में इस मुहिम की आड़ में वह अपने सभी राजनीतिक दुश्मनों को एक-एक कर रास्ते से हटा रहे थे। रूस में पुतिन अपने सबसे बड़े आलोचकों को या तो जेल में डाल देते हैं या फिर वे रहस्यमयी हालात में मारे जाते हैं। संदेश साफ़ है- जो मेरे खिलाफ जाएगा, उसका यही हश्र होगा। इजरायल में नेहतन्याहू पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं लेकिन वह देश को एक लंबे युद्ध में उलझाकर अपनी सत्ता बचाए रखें हुए है क्योंकि वह जानते हैं जब देश पर खतरा हो, तो जनता अक्सर नेता के पीछे एकजुट हो जाती है।
तुर्की में एक तख्तापलट की नाकाम कोशिश के बाद, एर्दोगान हज़ारों जजों, प्रोफेसरों और पत्रकारों को जेल में डाल देते है। वह इस संकट को एक मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं ताकि भविष्य में कोई उसके खिलाफ़ आवाज़ न उठा सके। विश्व पटल पर हुई ये अलग-अलग घटनाएं हैं लेकिन एक छिपा हुआ धागा इन्हें जोड़ता है। सत्ता के लिए ताकत का ऐसा बेरहम इस्तेमाल, जहां नतीजा ही सब कुछ हो और नियम-कानून कुछ भी नहीं- राजनीति के इस दर्शन को दुनिया एक खास नाम से जानती है। इसे कहते हैं - 'मैकियावेलियन'।
यह शब्द आया है मैकियावेली से। 500 साल पहले पैदा हुआ इटली के एक छोटे से शहर का वह क्लर्क, जिसके लिखे सिद्धांत आज 21वीं सदी की वर्ल्ड पॉलिटिक्स का सीक्रेट मैनुअल बन गए हैं। पुतिन से लेकर नेतन्याहू तक, ट्रंप से लेकर शी जिनपिंग तक- तमाम मॉडर्न नेताओं की कथनी और करनी का पैटर्न देखेंगे तो आपको उसमें मैकियावेली की झलक मिलेगी।
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कौन था मैकियावेली, क्या थे उसके विचार और क्यों उसकी किताब को शैतान की हैंडबुक कहा गया? अलिफ लैला की इस कड़ी में हम जानेंगे निकोलो मैकियावेली के बारे में, वह विचारक, जो तमाम मॉडर्न राजनेताओं का बौद्धिक गुरु है। कोई भी इंसान परिस्थितियों का नतीजा होता है इसलिए मैकियावेली की कहानी को समझने के लिए, हमें 500 साल पीछे उस दौर के इटली में चलना होगा।
शैतान का दूसरा नाम
निकोलो मैकियावेली की कहानी शुरू होती है पंद्रहवीं सदी के फ्लोरेंस शहर से। यह वह दौर था जब इटली छोटे-छोटे राज्यों में बंटा था और हर कोई दूसरे को निगल जाने की फिराक में था। फ्लोरेंस कला का केंद्र होने के साथ-साथ सियासी साजिशों का गढ़ भी था। यहां दिन में कला पर बात होती थी और रात में कत्ल की साज़िशें रची जाती थीं। शहर पर एक परिवार का दबदबा था- मेडिसी परिवार। ये बैंकर थे, उनका पैसा पूरे यूरोप में लगा था। इसी पैसे के दम पर उन्होंने फ्लोरेंस की सियासत को अपनी मुट्ठी में कर लिया था।
मैकियावेली ने इसी फ्लोरेंस में आंखें खोली थीं। उसके पिता एक मामूली वकील थे तो मैकियावेली ने बचपन से ही गरीबी देखी लेकिन किताबों से उसकी दोस्ती थी। वह घर पर ही प्राचीन रोम के किस्से पढ़ता और सीखता कि साम्राज्य कैसे बनते और बिगड़ते हैं। 1478 में जब मैकियावेली सिर्फ 9 साल का था, उसने सत्ता का सबसे नंगा नाच अपनी आंखों से देखा। पाज़ी परिवार ने मेडिसी के दबदबे को खत्म करने के लिए एक खूनी साज़िश रची। दिन चुना गया ईस्टर का। जगह चुनी गई फ्लोरेंस का सबसे बड़ा कैथेड्रल। मेडिसी परिवार के दो भाई, लोरेंज़ो और गुलिआनो प्रार्थना में शामिल थे। जैसे ही पादरी ने घंटी बजाई, पाज़ी परिवार के लोग चाकुओं के साथ दोनों भाइयों पर टूट पड़े। गुलिआनो को वेदी के सामने ही 19 बार चाकू मारा गया। लोरेंज़ो अपनी तलवार से लड़ता हुआ किसी तरह अपनी जान बचाकर भाग गया।
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इस घटना के बाद मेडिसी ने बदला लिया। साज़िश में शामिल एक आर्क बिशप को पकड़ा गया और उसे पादरियों वाले कपड़ों में ही सरकारी महल की खिड़की से लटकाकर फांसी दे दी गई। 9 साल के मैकियावेली ने सीखा कि सत्ता के खेल में रहम की कोई जगह नहीं होती।
कुछ साल बाद, मेडिसी परिवार को शहर छोड़कर भागना पड़ा। अब फ्लोरेंस पर एक पादरी, गिरोलामो सावहनारोला का राज हो गया। सावहनारोला एक कट्टरपंथी था। उसे जाना जाता है 'अहंकार की होली' जलाने के लिए। एक रोज़ उसने शहर से लोगों से कहा- अपनी तमाम क़ीमती चीजें जला दो, ये ईश्वर की राह में बाधा हैं। फ्लोरेंस के लोगों को गहने और सुंदर कपड़े जलाने पर मजबूर किया गया।
कुछ ही साल में लोगों का सब्र जवाब दे गया और एक चौराहे पर सावहनारोला को पहले फांसी दी गई और फिर जला दिया गया। मैकियावेली यह भी देख रहा था। उसने सीखा कि जनता की राय बदलती रहती है और वह पैगंबर जो निहत्था हो, उसका अंत हमेशा बुरा होता है।
इसी उथल-पुथल के बीच, 1498 में 29 साल के मैकियावेली को फ्लोरेंस गणराज्य की सरकार में एक अहम पद मिला। वह एक सेक्रेटरी और राजनयिक बन गया। अगले 14 साल तक उसने फ्लोरेंस की सेवा की। लगभग डेढ़ दशक बाद, भाग्य ने फिर पलटी मारी। स्पेन की सेना की मदद से मेडिसी परिवार फिर से फ्लोरेंस की सत्ता में लौट आया। गणराज्य खत्म हो गया। मैकियावेली को नौकरी से निकाल दिया गया, उस पर साज़िश का झूठा आरोप लगा। उसे गिरफ्तार कर लिया गया और शहर की सबसे बदनाम जेल, बारगेलो में डाल दिया गया। वहां उसे 'स्ट्रैपाडो' नाम की यातना दी गई। उसके हाथ पीठ के पीछे बांध दिए जाते और रस्सी से उसे हवा में ऊपर खींचा जाता। फिर उसे झटके से नीचे गिराया जाता, जिससे उसके कंधे अपनी जगह से उखड़ जाएं। उसे चार बार यह यातना दी गई। मैकियावेली टूट गया पर उसने जुर्म कबूल नहीं किया। कुछ हफ्तों बाद उसे रिहा कर दिया गया।
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अब वह एक बर्बाद इंसान था। उस पर भारी जुर्माना लगा था और शहर से निकाल दिया गया था। वह फ्लोरेंस के बाहर अपने छोटे से फार्म पर रहने लगा। दिन में वह किसानों और कसाइयों के साथ ताश खेलता और शराब पीता लेकिन रात में वह एक दूसरा इंसान बन जाता। अपनी एक मशहूर चिट्ठी में वह लिखता है कि शाम को मैं अपने स्टडी में जाता हूं। दरवाज़े पर ही मैं अपने कीचड़ सने दिन के कपड़े उतार देता हूं। इसके बाद शाही पोशाक पहनता हूं और फिर मैं पुराने दौर के महान लोगों की अदालतों में दाखिल होता हूं। मैं उनसे सवाल करता हूं और वह मुझे जवाब देते हैं। उन चार घंटों के लिए मैं अपनी सारी परेशानियां, अपनी गरीबी और मौत का डर, सब भूल जाता हूं।
इसी अकेलेपन और बेबसी में उसने एक छोटी सी किताब लिखनी शुरू की। एक ऐसी किताब जिसमें उसने अपने 14 साल के राजनयिक तजुर्बे और सत्ता के क्रूर खेल के सारे सबक निचोड़ दिए। उसने यह किताब मेडिसी शासक को भेंट करने के लिए लिखी, इस उम्मीद में कि शायद वह उसकी काबिलीयत को पहचानें और उसे फिर से कोई काम दे दें। उस किताब का नाम था-'द प्रिंस'।
एक राजा को कैसा होना चाहिए?
मैकियावेली के दौर में राजाओं को सलाह देने वाली किताबें सिखाती थीं कि एक राजा को दयालु, ईमानदार और न्याय करने वाला होना चाहिए लेकिन मैकियावेली ने इस परंपरा को तोड़ दिया। उसने कहा कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए, बल्कि वैसी है जैसी वह है - क्रूर और धोखेबाज़। The प्रिंस मैकियावेली की सबसे फेमस किताब है। किताब की शुरुआत में ही अपना इरादा साफ़ कर दिया। उसने लिखा, 'मेरा इरादा उन चीज़ों के बारे में लिखना है जो सच में होती हैं, ना कि उन चीज़ों के बारे में जिनकी सिर्फ कल्पना की जाती है।' उसने कहा कि एक शासक को यह सीखना होगा कि ज़रूरत पड़ने पर बुरा कैसे बना जाए क्योंकि जो इंसान हमेशा अच्छा बनने की कोशिश करेगा, वह बुरे लोगों की इस दुनिया में बर्बाद हो जाएगा।
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इस बात को समझने के लिए मैकियावेली ने दो सबसे ज़रूरी शब्दों का इस्तेमाल किया- 'फॉर्चूना' (Fortuna) और 'विर्तु' (Virtù)। 'फॉर्चूना' का मतलब था भाग्य, किस्मत। मैकियावेली का मानना था कि हमारी ज़िंदगी के आधे फैसले किस्मत करती है लेकिन बाकी आधे हमारे हाथ में होते हैं। उसने किस्मत की तुलना एक उफनती हुई नदी से की। जब बाढ़ आती है, तो वह सब कुछ बहा ले जाती है लेकिन एक काबिल इंसान बाढ़ आने से पहले ही बांध और नहरें बना लेता है ताकि वह नदी के बहाव को मोड़ सके और तबाही को काबू में कर सके। किस्मत को काबू करने की यही काबिलियत थी 'विर्तु'।
यह शब्द अंग्रेज़ी के virtue जैसा ही है। दोनों का रूट एक ही है- 'Virtus'। प्राचीन रोम में 'Virtus' का मतलब होता था 'मर्दानगी', 'बहादुरी', 'चरित्र'। अंग्रेज़ी में virtue को अक्सर सद्गुण समझा जाता है लेकिन मैकियावेली ने 'सद्गुण' या 'virtue' की परिभाषा ही बदल दी। उसके अनुसार, 'विर्तु' का मतलब अच्छा या बुरा होना नहीं है। 'विर्तु' का मतलब है वह काबिलियत जो किसी खास मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी हो। एक डॉक्टर का सद्गुण है मरीज़ को ठीक करना, चाहे दवा कड़वी ही क्यों न हो। उसी तरह, एक शासक का सिर्फ एक ही मकसद होता है - रियासत की स्थिरता और इस मकसद को हासिल करने के लिए जो भी करना पड़े, वही शासक का असली 'सद्गुण' यानी 'विर्तु' (Virtù) है।
इसी 'विर्तु' के दम पर एक शासक को अपना सबसे बड़ा फैसला लेना होता है: उसे अपनी प्रजा का प्यार जीतना चाहिए या अपनी प्रजा के दिल में डर पैदा करना चाहिए? मैकियावेली का जवाब दो टूक था। उसने लिखा, 'अगर दोनों में से एक को चुनना हो तो प्यार किए जाने से ज़्यादा बेहतर है डर', क्योंकि, 'इंसान एहसान फरामोश, डरपोक और लालची होते हैं।' प्यार एक ऐसा बंधन है जिसे इंसान अपने फायदे के लिए कभी भी तोड़ सकता है लेकिन सज़ा का डर एक ऐसा बंधन है जो कभी नहीं टूटता।
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अपने इस सिद्धांत के साथ माकियावेली ने एक चेतावनी भी दी। शासक को डरावना ज़रूर होना चाहिए, लोगों को उससे डरना चाहिए पर नफ़रत नहीं करनी चाहिए। इसके लिए माकियावेली ने तरीका सुझाया, 'प्रजा की संपत्ति और उनकी औरतों से दूर रहो क्योंकि इंसान अपने पिता की मौत को जल्दी भूल जाता है लेकिन अपनी संपत्ति का नुकसान कभी नहीं भूलता।'
एक शासक को सिर्फ ताकतवर होना काफी नहीं है, उसे चालाक भी होना पड़ता है। मैकियावेली ने इसके लिए शेर और लोमड़ी का मशहूर उदाहरण दिया। 'शेर खुद को फंदों से नहीं बचा सकता और लोमड़ी खुद को भेड़ियों से नहीं बचा सकती।' इसलिए, एक शासक को 'फंदों को पहचानने के लिए लोमड़ी और भेड़ियों को डराने के लिए शेर'होना चाहिए।
ये 'द प्रिंस' की कुछ मुख्य बातें हैं लेकिन इस किताब का सबसे मशहूर या कुख्यात सिद्धांत है- The end justifies the means- यानी मकसद तरीके से बड़ा है। मकसद हासिल करने के लिए कोई भी तरीका जायज़ है। मैकियावेली का तर्क था कि एक राजा का सबसे बड़ा धर्म है अपनी रियासत को बचाना और इस मक़सद को पूरा करने के लिए उसे अक्सर ऐसे काम करने पड़ेंगे जो दोस्ती, इंसानियत और धर्म के खिलाफ़ हों। यहां उसने 'क्रूरता के सही इस्तेमाल' की बात की। यानी, सारी ज़रूरी क्रूरता एक ही बार में कर डालो ताकि लोगों के मन में खौफ बैठ जाए। इसके बाद क्रूरता बंद कर दो और लोगों को छोटे-छोटे फायदे देना शुरू करो। इससे लोग पुरानी क्रूरता को भूल जाएंगे और तुम्हारे वफादार बन जाएंगे।
तो क्या एक शहंशाह को हमेशा बुरा ही होना चाहिए? मैकियावेली कहता है, नहीं। वह कहता है कि एक शासक के लिए ज़रूरी नहीं कि उसमें सारे अच्छे गुण हों लेकिन ये बेहद ज़रूरी है कि वह अच्छा दिखे। उसे दयालु, वफादार और धार्मिक दिखना चाहिए लेकिन मन से उसे ऐसा तैयार रहना चाहिए कि ज़रूरत पड़ने पर वह ठीक इसका उलटा कर सके। यह दिखावे की कला है क्योंकि हर कोई ये देखता है कि तुम क्या दिखते हो, बहुत कम लोग ये महसूस कर पाते हैं कि तुम असल में क्या हो।
'क्रूरता के बिना महान देश नहीं बन सकता'
मैकियावेली सिर्फ एक शासक को सलाह नहीं दे रहा था। वह इस सवाल से भी जूझ रहा था कि एक महान देश या गणराज्य की नींव कैसे रखी जाती है? एक बिखरे हुए, भ्रष्ट समाज को एक संगठित और ताकतवर देश में कैसे बदला जाए? इस सवाल का जवाब उसने इतिहास में खोजा और जो निष्कर्ष निकाला, वह आज भी उतना ही विवादित है जितना 500 साल पहले था। उसकी किताब 'डिस्कोर्सेज़ ऑन लिवी' में वह कहता है कि किसी भी गणराज्य या साम्राज्य को अच्छी तरह से संगठित करना या पुराने संस्थानों में पूरी तरह से सुधार करना लगभग असंभव है, जब तक कि यह काम एक अकेले आदमी द्वारा न किया जाए।
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उसका तर्क था कि जब एक नया देश बनाना हो, तो भीड़ से उम्मीद नहीं की जा सकती। भीड़ में सैकड़ों अलग-अलग विचार होते हैं, जो आपस में टकराते हैं। एक मजबूत नींव रखने के लिए एक 'संस्थापक' की ज़रूरत होती है। एक ऐसा अकेला, ताकतवर व्यक्ति जो अपनी दूरदर्शिता और इच्छाशक्ति से समाज को एक नया आकार दे सके। मैकियावेली ने इसके लिए मूसा, साइरस और रोम के संस्थापक रोमुलस जैसे लोगों का उदाहरण दिया।
यहीं पर मैकियावेली अपनी सबसे चौंकाने वाली बात कहता है। वह पूछता है कि इन संस्थापकों ने अपनी सत्ता कैसे स्थापित की? जवाब है- अक्सर हिंसा और क्रूरता के ज़रिए और मैकियावेली के अनुसार, यह एक 'नेसेसरी ईविल' थी। उसने रोम के संस्थापक रोमुलस का उदाहरण दिया, जिसने अपने ही भाई रेमुस को मार डाला था। आम नैतिकता के हिसाब से यह एक घिनौना अपराध था लेकिन मैकियावेली कहता है कि हमें उसके काम को नहीं, बल्कि उसके काम के 'नतीजे' को देखना चाहिए। रोमुलस ने अपने भाई को अपनी निजी दुश्मनी के लिए नहीं, बल्कि एक साझा मकसद के लिए मारा। वह रोम की नींव रख रहा था और वह नहीं चाहता था कि सत्ता में कोई दूसरा हिस्सेदार हो जो उसके बनाए नियमों को कमज़ोर करे। उसका मकसद एक महान शहर बसाना था। मैकियावेली के प्रसिद्ध शब्द हैं: 'कर्म आरोप लगाता है, और परिणाम क्षमा कर देता है', यानी अगर आपका मकसद महान है (जैसे एक देश बनाना), तो उसे हासिल करने के लिए किए गए क्रूर कर्मों को माफ किया जा सकता है।
इस नियम के साथ भी मैकियावेली ने एक बड़ी शर्त रखी। संस्थापक की यह क्रूरता निजी फायदे के लिए नहीं, बल्कि 'साझा भलाई' के लिए होनी चाहिए। एक संस्थापक का काम सिर्फ सत्ता हासिल करना नहीं है, बल्कि ऐसे कानून और ऐसी संस्थाएं बनाना है जो उसके मरने के बाद भी देश को एक साथ जोड़े रखें। वह एक ऐसे आर्किटेक्ट की तरह है जिसे एक मज़बूत इमारत बनाने के लिए पुरानी और कमज़ोर दीवारों को बेरहमी से तोड़ना पड़ता है।
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इस सिद्धांत का एक आधुनिक उदाहरण सिंगापुर और उसके संस्थापक ली कुआन यू हैं। 1965 में जब सिंगापुर आज़ाद हुआ, तो वह एक छोटा, गरीब और नस्लीय दंगों से जूझ रहा देश था। ली कुआन यू ने अगले 30 सालों तक सिंगापुर पर एकछत्र राज किया। उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया, प्रेस की आज़ादी पर कड़े पहरे लगा दिए और समाज पर सख्त अनुशासन लागू किया। कई लोगों ने उन्हें एक तानाशाह कहा। लेकिन समर्थक तर्क देते हैं कि उनके शासन में सिंगापुर तीसरी दुनिया के एक देश से दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक बन गया।
मैकियावेली का मानना था कि संस्थापक का सबसे बड़ा काम है अपनी 'विर्तु' का इस्तेमाल करके मज़बूत संस्थाएं बनाना क्योंकि एक संस्थापक अपनी काबिलियत अपने वारिस को नहीं दे सकता। इसलिए उसे ऐसे कानून बनाने चाहिए कि उसके बाद आने वाले कमज़ोर शासक भी देश को बर्बाद न कर सकें। सत्ता किसी एक इंसान के कंधों पर नहीं, बल्कि संस्थाओं के कंधों पर टिकी होनी चाहिए। यही एक स्थायी और महान देश का रहस्य है।
आज़ादी का पैरोकार
अब तक हमने मैकियावेली के उस चेहरे को देखा है जिसने उसे बदनाम किया। एक ऐसा विचारक जो राजकुमारों को क्रूरता, धोखे और डर का पाठ पढ़ाता है लेकिन यह कहानी का सिर्फ एक पहलू है क्योंकि जिस वक्त मैकियावेली 'द प्रिंस' लिख रहा था, उसी दौर में वह एक और किताब लिख रहा था। उस किताब का नाम था - 'डिस्कोर्सेज़ ऑन लिवी'। यह किताब प्राचीन रोम के महान इतिहासकार टाइटस लिवी के लेखन पर एक टिप्पणी थी। इसमें मैकियावेली एक राजकुमार को नहीं, बल्कि एक गणराज्य यानी रिपब्लिक को सलाह दे रहा था। वह यह नहीं सिखा रहा था कि एक आदमी को सत्ता कैसे बचानी है, बल्कि यह बता रहा था कि एक आज़ाद देश को महान कैसे बनाया जाए।
इस किताब में मैकियावेली का सबसे बड़ा सवाल था- इतिहास में शहर और साम्राज्य महान कैसे बनते हैं? उसका जवाब हैरान करने वाला था। उसने लिखा, 'अनुभव दिखाता है कि शहरों ने कभी भी ताकत और दौलत में तरक्की नहीं की, सिवाय उन दौर के जब वे आज़ाद रहे हों।' उसने एथेंस और खासकर रोम का उदाहरण दिया। मैकियावेली के लिए, किसी भी देश की महानता का सिर्फ एक ही राज था - आज़ादी। यहीं पर वह उस विचार को पेश करता है जो 'द प्रिंस' से बिल्कुल उलटा लगता है। 'डिस्कोर्सेज़' में वह कहता है कि एक राजकुमार से ज़्यादा समझदार, ज़्यादा स्थिर और बेहतर निर्णय लेने वाली एक आम जनता होती है।' वह आगे लिखता है कि एक अच्छा और संगठित गणराज्य, जहां लोगों की आवाज़ सुनी जाती है, एक समझदार राजकुमार से भी बेहतर होता है।
फिर एक आज़ाद गणराज्य को टिकाऊ और महान कैसे बनाया जाए? यहां मैकियावेली अपना सबसे क्रांतिकारी सिद्धांत पेश करता है। उसने रोम का उदाहरण देते हुए कहा कि रोम की आज़ादी का सबसे बड़ा कारण वहां के अमीर घरानों और आम जनता के बीच का टकराव था। यह टकराव, यह संघर्ष ही रोम की ताकत का राज था। उसका तर्क था कि हर समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वह जो ताकतवर हैं और दूसरों पर हुक्म चलाना चाहते हैं, यानी अमीर। दूसरे वह जो आम हैं और किसी के गुलाम नहीं बनना चाहते, यानी जनता। इन दोनों के बीच हमेशा एक खींचतान चलती है और इसी खींचतान के कारण ऐसे कानून बनते हैं जो आज़ादी की रक्षा करते हैं। यह संघर्ष एक सेफ्टी वॉल्व की तरह काम करता है, जो किसी एक पक्ष को पूरी तरह से हावी नहीं होने देता।
यह मैकियावेली का वह पक्ष है जहां वह गणतंत्र और लोकतंत्र का हिमायती है। सवाल उठता है कि हम किस मैकियावेली पर यकीन करें? वह जो 'द प्रिंस' में एक क्रूर राजकुमार की वकालत करता है या वह जो 'डिस्कोर्सेज़' में जनता की आज़ादी के गीत गाता है? असल में मैकियावेली एक यथार्थवादी था। वह मानता था कि जब समाज पूरी तरह से भ्रष्ट हो, तब व्यवस्था कायम करने के लिए एक 'प्रिंस' जैसी ताकत की ज़रूरत पड़ती है लेकिन उसका अंतिम लक्ष्य एक आदर्श गणराज्य की स्थापना करना ही था। हालांकि और यह बड़ा हालांकि है, मैकियावेली के समर्थक और विरोधी- दोनों की द प्रिंस की बात ज़्यादा करते हैं क्योंकि वह ज़्यादा कंट्रोवर्सियल है एक और बात, पश्चिमी दुनिया में ख़ासकर, मैकियावेली के विचारों को चेतावनी के तौर पर पढ़ाया जाता है कि ये विचार ग़लत हैं, तानाशाही हैं लेकिन ये नैतिक वचन वैसे ही हैं, जैसे झूठ बोलना गलत है, सब बोलते हैं और साथ ही झूठ भी बोलते हैं। इसी खोखली नैतिकता के चलते आप पाएंगे कि दुनिया के तमाम नेता मैकियावाली को दुत्कारेंगे, चेतावनी के लहजे में अपने विरोधियों को मैकियावालियन कहेंगे लेकिन जब सत्ता पर पकड़ बनाने को बात हो, चेले सारे अपने गुरु की ही बात करते हैं। दिलचस्प बात यह कि यह बात भी मैकियावैली की सिखाई हुई है- शासक के लिए ज़रूरी नहीं कि उसमें सारे अच्छे गुण हों लेकिन यह बेहद ज़रूरी है कि वह अच्छा दिखे। बहरहाल, इतनी कंट्रोवर्सियल किताब लिखने वाले मैकियावैली की ख़ुद की जिंदगी का क्या हुआ?
मैकियावेली की आखिरी चाल
'द प्रिंस' लिखने के बाद मैकियावेली की ज़िंदगी उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच झूलती रही। उसे लगा था कि यह किताब मेडिसी शासकों को प्रभावित करेगी और उसे उसका पुराना सम्मान वापस मिल जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। निराश होकर, मैकियावेली ने अपना ध्यान लेखन के दूसरे कामों में लगाया। आखिरकार किस्मत ने पलटी मारी। 1520 में उसे फ्लोरेंस का इतिहास लिखने का काम मिला। यह एक सम्मानजनक काम था लेकिन इसमें एक खतरा भी था। उसे मेडिसी परिवार के इतिहास के उन काले पन्नों को लिखना था जिसमें उन्होंने खुद फ्लोरेंस की आज़ादी को खत्म किया था।
1527 में जब वह अपनी किताब 'फ्लोरेंस का इतिहास' पूरी कर चुका था, इटली की सियासत में फिर से भूचाल आया। स्पेन और जर्मनी की सेनाओं ने रोम को लूट लिया। इसका फायदा उठाकर फ्लोरेंस के लोगों ने बगावत कर दी और मेडिसी परिवार को एक बार फिर शहर से बाहर निकाल दिया। फ्लोरेंस में फिर से गणराज्य की स्थापना हो गई। मैकियावेली को लगा कि आखिरकार उसका वक्त आ गया है। उसे पूरी उम्मीद थी कि नई सरकार उसके अनुभव का सम्मान करेगी लेकिन हुआ ठीक उलटा। गणराज्य के नए नेताओं ने उसे शक की नज़र से देखा। वह उसे मेडिसी का आदमी मानते थे। उसे कोई पद नहीं दिया गया।
यह आखिरी धक्का मैकियावेली बर्दाश्त नहीं कर पाया। कहा जाता है कि इस नाउम्मीदी ने उसका दिल तोड़ दिया। कुछ ही हफ्तों बाद, 21 जून 1527 को 58 साल की उम्र में उसकी मौत हो गई।
मैकियावेली की मौत के बाद उसकी किताब 'द प्रिंस' धीरे-धीरे पूरे यूरोप में फैलने लगी और इसे पढ़कर लोग दहल गए। चर्च ने इसे शैतानी किताब करार दिया और इस पर पाबंदी लगा दी। मैकियावेली इतना बदनाम हुआ कि इंग्लैंड में शैतान का एक नाम ही पड़ गया 'ओल्ड निक' जो निकोलो मैकियावेली के नाम से ही निकला था। महान नाटककार शेक्सपियर ने भी अपने नाटकों में धूर्त और साज़िशी किरदारों के लिए 'मैकियावेल' शब्द का इस्तेमाल किया।
हालिया विश्लेशणों के हिसाब से 'मैकियावेल' शैतान नहीं था, ना उसकी किताब। 'द प्रिंस' कोई निर्देश पुस्तिका नहीं है जिसका पालन किया जाना चाहिए। यह एक चेतावनी है। एक ऐसा एक्स-रे जो हमें सत्ता की अंदरूनी मशीनरी को दिखाता है- वह मशीनरी जो अक्सर नैतिकता के खोल के नीचे, डर, धोखे और ताकत के बेरहम नियमों पर चलती है। मैकियावेली ने यह खेल शुरू नहीं किया। उसने तो बस, इस खेल के नियम लिख दिए थे और उसकी सबसे बड़ी और सबसे डरावनी विरासत यही है कि 500 साल बाद भी, यह खेल और इसके नियम, बदले नहीं हैं।
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