आईवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) एक तकनीकी इलाज है जिसके जरिए लाखों कपल्स को माता पिता बनने की खुशी मिलती है। यह तकनीक उन लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं जो कपल्स माता पिता बनने की उम्मीद छोड़ चुके थे। आज विश्व भर में वर्ल्ड आईवीएफ डे (World IVF Day) मनाया जा रहा है। इस दिन खासतौर से लोगों को आईवीएफ के बारे में जागरूक किया जाता है।
वर्ल्ड आईवीएफ डे पर देश की जानी मानी स्त्री रोग विशेषज्ञ और फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर गौरी अग्रवाल और सीड्स ऑफ इनोसेंस की संस्थापक ने इस बात पर चिंता जताई कि भारत में प्रजनन दर तेजी से गिर रहा है और कैसे आईवीएफ की मदद से इसका समाधान किया जा सकता है।
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क्या है होम आईवीएफ मॉडल
सीड्स ऑफ इनोसेंस ने होम आईवीएफ मॉडल की शुरुआत की है जिसका उद्देश्य यह है कि सहायक प्रजनन तकनीक (Assisted Reproduction) को देश के हर कोने तक पहुंचाया जा सके, ताकि जो लोग क्लिनिक या अस्पताल नहीं जा सकते, वे भी इलाज प्राप्त कर सकें। इस पहल के जरिए प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं को अधिक आसान, सुविधाजनक और किफायती बनाने की दिशा में काम किया जा रहा है।
डॉक्टर गौरी अग्रवाल ने बताया कि होम आईवीएफ एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जिसकी मदद से आप घर पर ही फर्टिलिटी का शुरुआती इलाज करा सकते हैं। इस प्लेटफॉर्म की मदद से आप घर पर ही ऑनलाइन परामर्श ले सकते हैं, घर पर ही हार्मोन इंजेक्शन देना, घर पर जांच और निगरानी कराना शामिल है। उन्होंने बताया होम आईवीएफ मॉडल उन लोगों के लिए बहुत फायदेमंद हो रहा है जिन्हें सामाजिक झिझक महसूस होती हैं या फिर जो प्रजनन केंद्रों से दूर रहते हैं।
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इस तकनीक से दूर दराज के लोगों को मिल रहा है फायदा
डॉक्टर अग्रवाल ने उदाहरण देते हुए कहा कि बिहार के पश्चिम चंपारण की एक महिला बहुत ही कम क्लिनिक विजिट्स के साथ जुड़वां बच्चों के साथ प्रेग्नेंट हुई है। आज के समय में लोग ऐसी ही फर्टिलिटी केयर चाहते हैं जो ना केवल फायदेमंद हो बल्कि गोपनीय, फैलेक्सिबल और उनकी लाइफस्टाइल के हिसाब से हो।
होम आईवीएफ पर मिलने वाली सुविधाएं
- वर्चुअल प्रजनन परामर्श
- रिमोट मॉनिटरिंग
- घर पर सीमेन परीक्षण
- एआई डॉक्टर आईवीएफ
बांझपन को कलंक मानते हैं लोग
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) के मुताबिक भारत में प्रजनन स्तर 2.1 से गिरकर 1.9 पर आ गया है। हालांकि शहरी क्षेत्र में सहायक प्रजनन को लेकर जारूकता बढ़ी है लेकिन अभी भी टियर 2 और टियर 3 शहरों में रहने वाले लोगों के लिए उपचार केंद्रों तक पहुंचना मुश्किल होता है। इसके अलावा छोटे शहरों में लोग बांझपन को कलंक मानते हैं।