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संविधान में समानता, फिर भी जातीय उत्पीड़न के हैं शिकार? समझिए कानून

26 नवंबर 1949। भारतीय संविधान लागू हुआ। जातिगत और धार्मिक आधार पर होने वाले भेदभावों के अंत की कानूनी तौर पर नींव पड़ी। क्या यह लागू हो पाया? आइए समझते हैं।

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AI Generated Image. (Photo Credit: Grok AI)

संविधान के 'शिल्पकार' कहे जाने वाले डॉ. भीम राव आंबेडकर की जयंती देशभर में धूम-धाम से मनाई गई। 14 अप्रैल 1891 में जन्मे भीम राव आंबेडकर, सामाजिक समता के लिए ऐसा काम किया कि लोग उन्हें महात्मा गांधी से भी आगे की श्रेणी में रखने लगे। देशभर में उनकी मूर्तियां हैं, मंदिर बने हैं, उन्हें देश का एक बड़ा तबका पूजता है। वही तबका, जिसके हक के लिए, बराबरी का दर्जा और न्याय दिलाने के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। ये लड़ाई आजादी के दशकों बाद भी लड़ी जा रही है। 

कहीं दलितों को घोड़ी चढ़ने से रोका जाता है, कहीं उन्हें मंदिरों में घुसने नहीं दिया जाता। जाति व्यवस्था का दंश, एक तबका आज भी झेल रहा है। शायद यही वजह है कि जब किसी मंदिर में दलितों को अगर प्रवेश करने की इजाजत मिलती है तो यह खबर, अखबरों की सुर्खियां बनती है। 

समता का दावा लेकिन एक सच यह भी 
केरल के कासरगोड़ जिले में एक मंदिर है रायरामंगल। द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह मंदिर शताब्दियों पुराना है और पिलिकोड इलाके में है। इस मंदिर के गर्भगृह के द्वार पहली बार सबके लिए खुले हैं। पहले सिर्फ सवर्ण जातियों के लिए मंदिर के द्वार खुले थे। इस मंदिर में कुछ समुदाय विशेष के लोगों को ही प्रवरेश दिया जाता था। मालाबार देवासम बोर्ड ने मंदिर के गर्भगृह को एक लंबे आंदोलन के बाद खोला। रविवार सुबह करीब 8 बजे, विषु फेस्टिवल से पहले 16 श्रद्धालु मंदिर के आंतरिक स्थल नालांबलम तक पहुंचे। यह पहली बार था, जब मंदिर के नियम कानून सबके लिए एक जैसे हुए हैं। 

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दलितों पर कितना अत्याचार? NCRB के आंकड़ों से समझिए
संविधान लागू होने के दशकों बीत गए हैं लेकिन अभी तक लोगों को संघर्ष करना पड़ रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2018 से 2022 के बीच औसत 50 हजार से ज्यादा मामले सामने आए हैं। साल 2018 में दलित उत्पीड़न के 42,793 केस,  2019 में 45,935 केस, 2020 में  50,291, 2021 में 50,900 और 2022 में 57,582 केस सामने आए थे। हर साल, साल-दर साल आंकड़े बढ़े हैं। 

यूपी और राजस्थान जैसे राज्यों में दलित उत्पीड़न के सबसे ज्यादा मामले सामने आते हैं। NCRB के 2022 के आंकड़े बताते हैं कि दलितों के खिलाफ होने वाले 23% अत्याचार यूपी में होते हैं। राजस्थान में 16 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 14 प्रतिशत उत्पीड़न के मामले दर्ज होते हैं। बिहार, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में भी यही स्थिति है।  

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दलितों की रक्षा के लिए कानून क्या हैं?

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 17 छुआछूत पर प्रतिबंध लगाता है। यह दंडनीय अपराध है। अनुच्छेद 15 जातिगत आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समता की बात करता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 छुआछूत और अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाफ अत्याचार को रोकने के लिए बनाया गया। इसमें छुआछूत से संबंधित अपराधों के लिए सजा का प्रावधान है। इसमें 6 महीने से 5 साल तक की जेल हो सकती है और जुर्माना देना पड़ सकता है। 2015 में संशोधन कर इसे और सख्त किया गया, जिसमें नए अपराध जोड़े गए और पीड़ितों के लिए सुरक्षा बढ़ाई गई। नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 छुआछूत की वजह से सार्वजनिक स्थलों और मंदिरों में प्रवेश और पानी पीने से रोकने पर 6 महीने की जेल या 500 रुपये का जुर्माना हो सकता है। IPC और CrPC में भी दलित उत्पीड़न के खिलाफ प्रावधान हैं। 

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हाल में दलित उत्पीड़न के मामले जो सुर्खियों में आए
13 अप्रैल 2025: यूपी के प्रयागराज में एक दलित युवक की हत्या हुई है। समुदाय के लोगों ने प्रशासन के प्रति अपनी नाराजगी जताई है।
1 अप्रैल 2025: मैनपुरी में पानी की बोतल छूने पर टीचर ने दलित छात्र की उंगलियां तोड़ दीं। कमरे में बंदकर पिटाई की, जिसके बाद छात्र गंभीर रूप से जख्मी हो गया। 
21 मार्च 2025: उत्तराखंड में दलित कपल को मंदिर में शादी करने के एक पुजारी ने रोक दिया। जब इसके खिलाफ शिकायत हुई तो पुलिस ने SC-ST एक्ट के तहत केस दर्ज हुआ। 

क्यों अब तक नहीं थमा उत्पीड़न?
दलित एक्टिविस्ट और वकील डॉ. रवींद्र सिंह ने कहा, 'दलित उत्पीड़न के ज्यादातर मामले दब इसलिए जाते हैं क्योंकि दलित ही इन उत्पीड़नों को स्वीकार कर लेते हैं। दलितों को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक होना होगा। गलत का विरोध करें, एकजुट रहें। जागरूक रहेंगे तो उनकी बात सुनी जाएगी। संविधान में सब बराबर हैं। किसी भी हाल में भेदभाव को सही नहीं ठहराया जा सकता। जातिगत उत्पीड़नों को जब तक सहेंगे, तब तक उत्पीड़न होगा। जब आवाज उठाएंगे, लड़ेंगे तो उत्पीड़कों के हौसले पस्त होंगे। कानून का इस्तेमाल कीजिए, स्थानीय पुलिस, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और अदलातों तक पहुंचिए। सहना गलत है। किसी को किसी जाति विशेष में पैदा हो जाने से ही उत्पीड़न के लिए हक नहीं मिल जाता है।'

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