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Clean Air Paradox: कैसे साफ हवा धरती की गर्मी को बढ़ा रही?

जब वायु प्रदूषण घटता है, तो एरोसोल्स भी घटते हैं और इसके चलते पृथ्वी और अधिक गर्म हो सकती है। जानिए इसके पीछे की साइंस और चुनौतियां।

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

पिछले कुछ दशकों में वैश्विक स्तर पर वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सख्त कदम उठाए गए हैं। प्रदूषण फैलानी वाली मैन्युफैक्चरिंग यूनिट पर नियंत्रण, स्वच्छ ईंधन का प्रयोग, गाड़ियों से निकलने वाले धुएं के उत्सर्जन मानकों को कड़ा करना और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना, इन सभी उपायों ने एक हद तक वायुमंडल को साफ करने में मदद की है। वायु गुणवत्ता में सुधार कई देशों में अब महसूस किया जा सकता है—लोग कम बीमार पड़ रहे हैं, सांस संबंधी रोगों में गिरावट आई है और दृश्यता में भी सुधार हुआ है।

 

लेकिन एक चौंकाने वाली बात हालिया शोध में सामने आई है। वह यह है कि स्वच्छ होती हवा भी अब पृथ्वी को और अधिक गर्म बनाने में भूमिका अदा कर रही है। यह बात सुनने में अजीब लग सकती है, लेकिन इसके पीछे साइंस का एक गंभीर प्रोसेस काम कर रही है। दरअसल, वायु प्रदूषण के कुछ कण—जिन्हें एरोसोल्स कहा जाता है—सूरज की रोशनी को पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से पहले ही परावर्तित कर देते हैं, जिससे वातावरण कुछ हद तक ठंडा रहता है। जब यह एरोसोल्स कम हो जाते हैं, तो सूरज की गर्मी बिना किसी अवरोध के धरती  तक पहुंचती है, जिससे वैश्विक तापमान और अधिक तेज़ी से बढ़ने लगता है।

 

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इस लेख में खबरगांव इस 'Clean Air Paradox' के बारे में बता करेगा। साथ ही इसके वैज्ञानिक आधार, प्रभाव, और नीतिगत पेचदगियों के बारे में भी बात करेगा।

क्या है Clean Air Paradox?

क्लीन एयर पैराडॉक्स एक वैज्ञानिक घटना है, जिसमें वायु प्रदूषण घटने के कारण वातावरण में मौजूद कूलिंग इफेक्ट भी समाप्त हो जाता है, जिससे धरती अधिक गर्म होने लगती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, 'एरोसोल्स' (जैसे सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रेट्स, काले कार्बन कण) सूर्य के प्रकाश को वापस अंतरिक्ष में भेजने में मदद करते हैं, लेकिन जब ये प्रदूषक (Pollutants) कण कम हो जाते हैं—जैसे कि यूरोप, अमेरिका और चीन में हाल के वर्षों में हुआ है। इसकी वजह से ज्यादा धूप धरती तक पहुंचती है, बादलों का निर्माण कम होता है, वायुमंडलीय ठंडक का प्रभाव घटता है और परिणामस्वरूप, तापमान बढ़ता है।

क्या कहते हैं आंकड़े?

एक रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से 2020 तक वैश्विक रूप से एरोसोल कणों में 30% की गिरावट दर्ज की गई। इस गिरावट ने वैश्विक औसत तापमान को 0.1°C तक बढ़ा दिया। केवल यूरोप में, सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 70% की गिरावट देखी गई और वहां के औसत तापमान में 0.2°C की वृद्धि हुई।

 

एक अन्य अध्ययन के अनुसार COVID-19 लॉकडाउन के दौरान जब फैक्ट्रियां बंद हुईं और ट्रैफिक घटा, तब वायुमंडलीय एरोसोल्स में तेज़ गिरावट हुई। 2020 में केवल साफ हवा की वजह से वैश्विक तापमान 0.02 से 0.04°C तक ऊपर गया। 

 

लेकिन कुछ प्रदूषक तापमान को गर्म करने में भी भूमिका निभाते हैं जैसे- कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) और मीथेन जैसी गैसें ग्रीनहाउस प्रभाव को बढ़ाती हैं, जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है। दूसरी ओर, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रेट जैसे एरोसोल प्रदूषक सूर्य की किरणों को परावर्तित कर बादल बनाते हैं, जो वातावरण को अस्थायी रूप से ठंडा करने का काम करते हैं।

 

ये ठंडक देने वाले प्रभाव जलवायु परिवर्तन की गति को कुछ समय के लिए धीमा कर सकते हैं। हालांकि, ब्लैक कार्बन (काला कार्बन) जैसे कुछ एरोसोल ऐसे भी होते हैं जो धूप को सोखकर वातावरण को गर्म कर देते हैं।

तो क्या प्रदूषण सही है?

बिलकुल नहीं। इन तथ्यों से गलत निष्कर्ष निकालने की जरूरत नहीं है क्योंकि एरोसोल्स भले ही अस्थायी रूप से तापमान कम करें, लेकिन वे अत्यंत हानिकारक होते हैं और फेफड़ों की बीमारी, कैंसर और समयपूर्व मृत्यु का कारण बनते हैं।

 

आंकड़ों के मुताबिक वैश्विक स्तर पर हर साल 70 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से होती है। इसलिए ग्लोबल वॉर्मिंग का हल एरोसॉल्स नहीं हैं। बल्कि, ग्रीनहाउस गैसों को कम करना, कार्बन कैप्चर टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देना, सौर विकिरण प्रबंधन जैसे समाधान तलाशना, क्लाइमेट पॉलिसी को बेहतर बनाना है।

 

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क्या हैं नीतियां?

जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध वैश्विक प्रयासों के तहत इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने 1.5°C तापमान वृद्धि को सीमा के रूप में निर्धारित किया है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पृथ्वी का औसत तापमान प्री-इंडस्ट्रियल स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़े। लेकिन इस लक्ष्य को प्राप्त करना आसान नहीं है, खासकर तब जब वायु प्रदूषण से संबंधित एरोसोल्स में गिरावट आती है, जबकि कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) का स्तर जस का तस बना रहता है।

 

यह विरोधाभास एक गंभीर चुनौती बनकर उभर रहा है, क्योंकि एरोसोल्स—जैसे कि सल्फर डाइऑक्साइड—वायुमंडल में सूर्य की कुछ गर्मी को परावर्तित करते हैं और पृथ्वी को ठंडा रखने में मदद करते हैं। यदि हम इन प्रदूषकों को तेजी से कम करते हैं, लेकिन CO₂ को नियंत्रित नहीं कर पाते, तो तापमान में अपेक्षा से अधिक तेज़ी से वृद्धि हो सकती है और IPCC का 1.5°C लक्ष्य हाथ से निकल सकता है।

भारत की स्थिति

भारत के परिप्रेक्ष्य में यह समस्या और भी जटिल हो जाती है। भारत ने 2070 तक नेट ज़ीरो (Net Zero) का लक्ष्य रखा है, जिसका अर्थ है कि उस वर्ष तक जितनी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होगा, उतना ही अवशोषण या निष्कासन भी किया जाएगा। लेकिन वर्तमान में भारत की 60% बिजली उत्पादन अब भी कोयले पर आधारित है। कोयले के संयंत्रों से सल्फर डाइऑक्साइड जैसे एरोसोल्स भी निकलते हैं, जो वायुमंडल को आंशिक रूप से ठंडा करने में भूमिका निभाते हैं।

 

2022 में भारत सरकार ने कोयला संयंत्रों में सल्फर स्क्रबर लगाने का आदेश दिया था, ताकि सल्फर उत्सर्जन को रोका जा सके। लेकिन यदि इन स्क्रबर्स को लागू किया जाता है, तो एरोसोल्स में तेज़ गिरावट आएगी और पृथ्वी का तापमान और तेज़ी से बढ़ सकता है, खासकर तब जब CO₂ के उत्सर्जन पर पर्याप्त अंकुश न हो।

प्रदूषण बनाम क्लाइमेट

यह परिदृश्य एक वैश्विक नीति टकराव को जन्म देता है जिसे हम 'Pollution vs. Climate' कह सकते हैं। पश्चिमी देश, जिन्होंने लंबे समय तक भारी उत्सर्जन किया है, अब प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों को कम करने की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे एरोसोल्स घटते हैं, गर्मी बढ़ती है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव जीवनशैली पर पड़ता है: अधिक तापमान का मतलब है अधिक एयर कंडीशनिंग, जो बदले में अधिक ऊर्जा की मांग पैदा करता है और इसके साथ ही CO₂ उत्सर्जन भी बढ़ता है। यह एक दुष्चक्र बन जाता है, जिससे बाहर निकलना मुश्किल होता है।

क्या है समाधान?

इस जटिल स्थिति से निपटने के लिए कुछ संभावित समाधान सामने आए हैं। पहला और सबसे जरूरी कदम है—कार्बन डाइऑक्साइड पर सख्त नियंत्रण। केवल प्रदूषण नियंत्रित करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि CO₂ जैसी ग्रीनहाउस गैसों को लक्ष्य कर के ही जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा किया जा सकता है। दूसरा उपाय है—सोलर रेडिएशन मैनेजमेंट (SRM), जिसमें वायुमंडल में सूक्ष्म कण छोड़कर सूर्य की किरणों को परावर्तित किया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे किसी बड़े ज्वालामुखी विस्फोट के बाद होता है। हालांकि यह तकनीक अभी विकासशील अवस्था में है और इससे जुड़े कई नैतिक और पर्यावरणीय सवाल भी हैं।

 

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तीसरे विकल्प के रूप में प्राकृतिक समाधानों (Nature-Based Solutions) को अपनाना ज़रूरी है—जैसे ज्यादा पेड़ लगाना, वनस्पति आवरण बढ़ाना और जैव विविधता को संरक्षित करना। ये तरीके न केवल CO₂ को अवशोषित करने में मदद करते हैं, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र को भी मजबूत बनाते हैं। अंत में, जियो-इंजीनियरिंग जैसी तकनीकों पर वैश्विक स्तर पर सहमति और नैतिक दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य होगा। जलवायु संकट वैश्विक समस्या है, और इसका समाधान भी वैश्विक समन्वय के बिना संभव नहीं है।

 

इस प्रकार, अगर हमें 1.5°C के लक्ष्य को पाना है, तो एरोसोल्स और CO₂ के बीच की इस जटिल पहेली को वैज्ञानिक समझ, सामाजिक इच्छाशक्ति और वैश्विक नीति समन्वय के साथ सुलझाना होगा।

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