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न स्कूल, न बिजली, आजादी के बाद पहली बार यहां लहराया तिरंगा

महाराष्ट्र के 4 आदिवासी गांवों में पहली बार तिरंगा फहराया गया। इन गांवों में आज तक स्कूल, सड़क, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं पहुंची हैं।

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सांकेतिक तस्वीर, Photo Credit: IIT Delhi

उत्तर महाराष्ट्र के एक सुदूर गांव में आजादी के बाद पहली बार तिरंगा फहराया गया। इन गांवों में आज तक ना तो बिजली पहुंच पाई है और ना ही मोबाइल का सिग्नल। इस गांव तक कोई भी सुविधा प्रशासन की तरफ से नहीं दी गई है और ना ही कोई सरकारी योजना यहां तक पहुंच पाती है। ऐसे एक गांव में रहने वाले गणेश पावरा ने देशभक्ति की मिसाल पेश करते हुए स्वतंत्रता दिवस के मौके पर तिरंगा फहराया । उन्होंने गांव के 30 बच्चों को इकट्ठा कर आजादी का जश्न मनाया। इस गांव के साथ 3 अन्य गांवों में भी पहली बार तिरंगा फहराया गया। अब उनकी देशभक्ति की भावना की पूरे देश में चर्चा हो रही है। 

 

पहली बार तिरंगा फहराने के लिए गणेश ने 14 अगस्त की शाम एक वीडियो से सीखा कि तिरंगे को किस तरह से बांधा जाए कि वह बिना रुकावट शान से लहराए।शुक्रवार 15 अगस्त को, गणेश पावरा ने करीब 30 बच्चों और गांव वालों के साथ मिलकर अपने गांव उदाड्या में पहली बार झंडा फहराया। यह गांव नंदुरबार जिले की सतपुड़ा पहाड़ियों के बीच बसा है। इन गांवों में आज तक बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंच पाई हैं। 

 

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गांव में नही है कोई सरकारी स्कूल

यह गांव मुंबई से करीब 500 किलोमीटर और सबसे नजदीकी तहसील से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। इस छोटे से गांव में करीब 400 लोग रहते हैं, लेकिन यहां कोई सरकारी स्कूल नहीं है। गणेश एक गैर सरकार संस्था वाईयूएनजी फाउंडेशन की ओर से चलाए जाने वाले एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हैं। इस फाउंडेशन के संस्थापक संदीप देओरे ने कहा, 'यह इलाका प्राकृतिक सुंदरता, उपजाऊ मिट्टी के साथ नर्मदा नदी के किनारे बसा है लेकिन पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहां तक पहुंचना काफी मुश्किल होता है।'

इतने सालों क्यों नहीं फहराया तिरंगा?

इन गांवों में न तो कोई सरकारी स्कूल है और न ही ग्राम पंचायत का दफ्तर, इसलिए पिछले 70 साल में यहां कभी झंडा नहीं फहराया गया। यह देखते हुए पिछले तीन सालों से इस इलाके में काम कर रहे फाउंडेशन ने इस साल स्वतंत्रता दिवस पर उदाड्या, खपरमाल, सदरी और मंझनीपड़ा जैसे छोटे गांवों में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का फैसला किया। फाउंडेशन जिन स्कूलों को चलाती है उनके 250 से ज्यादा बच्चे  शुक्रवार को झंडा फहराने के कार्यक्रम में शामिल हुए, साथ ही गांव के स्थानीय लोग भी मौजूद रहे।

 

संदीप देओरे ने कहा कि इस पहल का मकसद सिर्फ पहली बार झंडा फहराना नहीं था, बल्कि लोगों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में जागरूक करना भी था। संदीप देओरे ने कहा, 'यहां के आदिवासी बहुत आत्मनिर्भर जीवन जीते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वे सभी हमारे संविधान में दिए गए अधिकारों के बारे में जानते हों।' उन्होंने यह भी कहा कि मजदूरी करते समय या रोजमर्रा के लेन-देन में अकसर इन लोगों का शोषण होता है या उन्हें लूटा जाता है।

 

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कई बस्तियों तक नहीं पहुंची सड़क

संदीप ने बताया कि इनमें से सदरी जैसी कई बस्तियों में सड़क की सुविधा भी नहीं है। सदरी के निवासी भुवान सिंह पावरा ने बताया कि गांव के लोग दूसरे इलाकों तक पहुंचने के लिए या तो कई घंटे पैदल चलते हैं या फिर नर्मदा नदी में चलने वाली नाव पर निर्भर रहते हैं। वाईयूएनजी फाउंडेशन का स्कूल उनकी जमीन पर ही चलाया जाता है। उन्होंने कहा कि शिक्षा की कमी यहां की सबसे बड़ी समस्या है और वह नहीं चाहते कि अगली पीढ़ी भी इसी तकलीफ से गुजरे इन गांवों तक अब तक बिजली नहीं पहुंची है, इसलिए ज्यादातर घर सौर पैनल पर निर्भर हैं। यहां के लोग पावरी बोली बोलते हैं, जो सामान्य मराठी या हिंदी से काफी अलग है जिससे बाहरी लोगों के लिए उनसे बातचीत करना मुश्किल होता है। 

गांव में नही है स्कूल

इन गांवों में अभी तक कोई भी स्कूल नहीं है। इस इलाके में स्कूल चलाने वाले संदीप ने बताया कि शुरुआत में लोगों का विश्वास जीतना कठिन था लेकिन जब वे इस काम के उद्देश्य को समझ गए तो उनका सहयोग मिलने लगा, जिससे उनका काम आसान हो गया। यह संस्था अपने शिक्षकों की सैलरी और स्कूलों के लिए बुनियादी ढांचे की व्यवस्था के लिए दान पर निर्भर है लेकिन ये स्कूल अनौपचारिक होने के कारण यहां सरकारी स्कूलों की तरह सरकार की भोजन योजना लागू नहीं की जा सकती।

 

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आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अकसर इन दूरदराज के गांवों में नहीं आते। हालांकि, कई जगह स्थिति अलग है जैसे खपरमाल की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आजमीबाई अपने गांव में ही रहती हैं और ईमानदारी से अपना काम करती हैं। आजादी के इतने साल बाद तक भी इन गांवों में स्कूल, बिजली, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं का ना होना हमारी सरकारों के कामकाज पर गंभीर सवाल खड़े करता है। 

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