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नई शिक्षा नीति पर दक्षिण भारतीय राज्यों के ऐतराज की पूरी कहानी

नेशनल एजुकेशन पॉलिसी को लेकर शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बीच तकरार बढ़ गई है। नई शिक्षा नीति पर विवाद की पूरी कहानी क्या है, विस्तार से समझिए।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, एमके स्टालिन, रेवंत रेड्डी और पिनराई विजयन। (Photo Credit: PTI)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के लेकर केंद्र सरकार और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में अनबन है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को उनके NEP विरोधी रुख को लेकर घेरा है। उनका कहना है कि राजनीतिक एजेंडे के लिए एमके स्टालिन प्रगतिशील सुधारों को खतरे में डाल रहे हैं। धर्मेंद्र प्रधान का कहना है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर छात्रों के हितों के बारे में सोचना चाहिए।

तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन का कहना है कि समग्र शिक्षा अभियान (SSA) और पीएम श्री स्कूल को नेशनल एजुकेशन पॉलिसी से जोड़ना मौलिक रूप से गलत है। यह संघवाद की संवैधानिक प्रकृति के खिलाफ है। उन्होंने केंद्र पर शिक्षा के लिए फंड न जारी करने के आरोप लगाए हैं। तमिलनाडु के अलावा कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों ने भी इस नीति का विरोध किया है।

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दक्षिण भारतीय राज्यों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विरोध क्यों हो रहा है, आइए विस्तार से समझते हैं-


नई गाइडलाइन पर राज्यों की आपत्ति क्या है?

केरल: केरल ने UGC के रेग्युलेशन 2025 पर कहा है कि ये दिशा-निर्देश अकादमिक मानकों को गिराएंगे, राज्य की भूमिका घटेगी, केंद्र की भूमिका बढ़ेगी।


तेलंगाना:
तेलंगाना का कहना है कि केंद्र सरकार ने राज्य की विधायी ताकत को तरजीह नहीं दी है। तेलंगाना के उपमुख्यमंत्री मल्लू भट्टी विक्रमार्क ने UGC के ड्राफ्ट पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा है कि ये राज्य की स्वायत्तता को खत्म कर देंगे।उनका कहना है कि यह अवधारणा संविधान की समवर्ती सूची के विषय में राज्य की भूमिका खत्म कर देगी।

कर्नाटक: कर्नाटक ने कहा है यूजीसी की गाइडलाइन विदेशी मॉडल थोपती है, यह निजीकरण को बढ़ावा दे रही है, आर्थिक और आम जन की पहुंच से राज्य को दूर कर रही है। यह केंद्र के संघवाद नियमों के खिलाफ है। 

तमिलनाडु: तमिलनाडु का कहना है कि राज्यों को निर्णायक फैसलों से बाहर किया जा रहा है। राज्यों पर आर्थिक बोझ बढ़ाया जा रहा है। केंद्र की ताकत थोपी जा रही है, राज्य की ताकतों को घटाया जा रहा है। 

और किस बात की है चिंता?
दक्षिण भारतीय राज्यों का कहना है कि उन पर हिंदी थोपने की कोशिश हो रही है। तमिलनाडु के सीएम स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी भी लिखी है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार 2,152 करोड़ रुपये के समग्र शिक्षा फंड को जारी करे। उन्होंने नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 के साथ न जोड़े। दरअसल दक्षिण भारतीय राज्यों का कहना है कि NEP को अगर राज्य त्रिभाषा (तीन भाषा) नीति को पूरी तरह से लागू नहीं करते हैं तो उन्हें फंड नहीं दिया जा सकता है। दक्षिण भारतीय राज्यों में इसी नीति को लेकर चिंता है। 

UGC का विरोध है या हिंदी का?
तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलनों का इतिहास रहा है। साल 1930 के दशक से ही वहां हिंदी विरोधी लहर है। जब तमिलनाडु मद्रास प्रेजीडेंसी का हिस्सा था, तब भी हिंदी विरोधी प्रदर्शन वहां हुए थे। साल 1959 में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस विवाद को कम करने में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने आश्वासन दिया था कि हिंदी थोपी नहीं जाएगी। 

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साल 1963 में तत्कालीन लाल बहादुर शास्त्री सरकार ने राजभाषा अधिनियम 1963 पारित किया। संविधान के अनुच्छेद 351 में वर्णित भाषा को बढ़ावा देने के नाम पर हिंदी को थोपे जाने का आरोप दक्षिण भारतीय राज्य लगाते रहे हैं। तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक जैसे राज्य इसी वजह से नेशनल एजुकेशन प्लान 2020 का विरोध कर रहे हैं। अन्य राज्यों ने इसे लागू कर दिया है। 

राज्यों को UGC और NEP से शिकायत क्या है? समझिए इतिहास
NEP 2020 को लेकर कहा जा रहा है कि इसकी वजह से केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों पर बड़ा असर हो सकता है। संसद में इस नीति पर चर्चा नहीं हुई। साल 1976 में संविधान के 412वें संशोशन तक शिक्षा राज्य की सूची में थी। साल 1976 में स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के बाद इसे समवर्ती सूची में रखा गया। शिक्षा में सिर्फ राज्य की दखल की जगह केंद्र को भी अधिकार मिले। समवर्ती सूची में होने की वजह से इस नीति पर राज्य सरकारें चर्चा चाहती हैं।  

दक्षिण भारतीय राज्यों को आपत्ति है कि NEP 2020 में तीन भाषाओं का फॉर्मूला दिया गया है। क्षेत्रीय भाषाओं के ऊपर संस्कृत और हिंदी को थोपे जाने की आशंका राज्य जता रहे हैं। तमिलनाडु अब तक अंग्रेजी और संस्कृत को ही तरजीह देता रहा है, ऐसे में अगर हिंदी या संस्कृत को जगह मिली तो भाषाई तौर पर संकट पैदा हो सकता है।

राज्यों को एक और दिक्कत यह है कि वह नहीं चाहते शिक्षा का केंद्रीयकरण हो। उच्च शिक्षा में सिर्फ केंद्र की भूमिका होने पर उन्हें आपत्ति है। राज्यों को कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (CUET) से भी आपत्ति है। तमिलनाडु में तो NEET एग्जाम का भी विरोध हो चुका है।  

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दक्षिण भारतीय राज्यों को लग रहा है कि अगर यह नीति लागू हुई तो राज्य के विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता प्रभावित होगी। एजुकेशन पॉलिसी पर ही केंद्र का नियंत्रण हो जाएगा। एक चिंता यह भी है कि इसमें विदेशी विश्वविद्यालयों को शामिल किया जा सकता है, जिससे प्राइवेट निवेश बढ़ेंगे और शिक्षा का व्यापारीकरण होगा। छात्रों के लिए पढ़ाई का खर्च वहन कर पाना मुश्किल होगा। 

तमिलनाडु और केरल के विश्वविद्यालयों ने 4 साल के ग्रुजेएशन सिस्टम पर भी आपत्ति है। उनका कहना है कि अभी 3 साल में डिग्री मिलती है, समय अवधि बढ़ाने की वजह से शिक्षा पर होने वाला खर्च बढ़ेगा। 

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तमिलनाडु ने पहले ही इस मॉडल को खारिज कर दिया है। उनका कहना है कि वे अपनी शिक्षा नीति पर काम करेंगे। केरल का कहना है कि यूजीसी आसान दिशानिर्देश जारी करे। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ने भी शिक्षा के केंद्रीयकरण पर सवाल उठाए हैं।

 

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