बिहार की सियासत में लालू की जगह कैसे जम गए नीतीश कुमार?
चुनाव
• PATNA 22 Jul 2025, (अपडेटेड 22 Jul 2025, 8:08 AM IST)
बिहार में 2 दशक तक 'लालू राज' रहा है। 1990 में वह मुख्यमंत्री बने, फिर उनकी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं। 20 साल के सत्ता को एनडीए आज भी जंगलराज बुलाता है। बिहार, इस दौर से बाहर कैसे आया, कहानी जानते हैं।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव। (Photo Credit: PTI)
1990 के दशक की शुरुआत हो रही थी। बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले थे। लालू यादव एक गांव में पहुंचे और उन्होंने एक ऐसा भाषण दिया, जिसकी छाप, बिहार में अगले एक दशक तक रही। उन्होंने एक चुनावी जनसभा में कहा था, 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू।' उनका यह बयान, देशभर में खूब चर्चा में रहा। ग्रामीण मतदाताओं को यह बयान रास आ गया था। बिहार उस वक्त तक सामाजिक क्रांति से गुजर रहा था। हालांकि यह पहली बार नहीं था जब लालू यादव ने आलू वाले बयान का जिक्र किया हो।
साल 1990 से लेकर 2010 तक, बिहार की सत्ता की धुरी, लालू यादव के इर्द-गिर्द घूमती थी। बिहार की सत्ता भी इसी बयान के इर्द-गिर्द घूमती थी। जब मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी बनीं तो क्या निर्णय करना है, यह तय, लालू यादव ही करते थे। भले ही वह जेल में क्यों न रहे हों। 1994 तक वह मुख्यमंत्री रहे फिर चारा घोटाले में जेल गए तो उनकी पत्नी राबड़ी देवी सत्ता में रहीं। बिहार में साल 1990 से लेकर 2005 तक के दौर को एनडीए की पार्टियां 'जंगल राज' बताती रही हैं। आलोचना कितनी भी हो, लालू यादव बिहार की पहचान बन गए थे। लोग उनकी हेयर स्टाइल, उनके बोलने का अंदाज तक कॉपी करते थे। उनका क्रेज, किसी जन नेता की तुलना में कहीं ज्यादा था।
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1990 से 2005 तक, बिहार की सत्ता की धुरी रहे लालू यादव
बिहार की सत्ता में आलू की तरह जड़ें जमा चुके लालू यादव आखिर कैसे बिहार की सत्ता से विदा हुए और नीतीश कुमार सत्ता में कैसे आए, यह कहानी भी बेहद दिलचस्प है। इस कहानी से पहले यह जानते हैं कि कैसे लालू यादव के बारे में यह कहावत कही गई। 1970 का दशक था। संपूर्ण क्रांति का दशक। इस क्रांति ने देश में बहुत कुछ बदल दिया था। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए आंदोलन का मकसद देश से भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सत्ता तंत्र की खामियों को खत्म करना था। आंदोलन में बढ़चढ़कर छात्र भी हिस्सा ले रहे थे। पटना विश्वविद्यालय में पढ़ रहे लालू यादव भी इस आंदोलन में कूद पड़े थे। वह कम उम्र ही अपनी अनोखी भाषण शैली की वजह से चर्चा में रहने लगे।
बिहार की सियासत में कैसे छा गए लालू यादव?
साल 1970 में ही पटना में विश्वविद्याल छात्र संघ का चुनाव हुआ। लालू यादव महासचिव चुने गए। 1973 में वह अध्यक्ष बने। साल 1974 में जब बिहार जेपी आंदोलन का गवाह बना तो लालू यादव छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष के तौर पर आंदोलन से जुड़े। पटना विश्वविद्यालय समिति ने इसी समिति का गठन किया था। लालू यादव नेतृत्व कर रहे थे। वह अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े वर्गों के अधिकारों को लेकर मुखर थे।
लोग उन्हें सामाजिक न्याय का नया चेहरा समझने लगे। आंदोलन के दौरान लालू यादव देश के कई बड़े नेताओं से जुड़े। साल 1977 तक वह जनता दल के दिग्गज नेताओं की नजर में आ गए। उन्हें 1977 के लोकसभा चुनाव में टिकट मिला, वह चुनाव जीतने में कामयाब भी हो गए। साल 1979 तक पार्टी में अंदरुनी कलह की शुरुआत हो गई थी। सरकार गिर गई। संसद भंग हुआ, 1980 में फिर चुनाव हुए। वह राज नारायण के नेतृत्व वाली जनता पार्टी (एस) में शामिल हुए लेकिन चुनाव हार गए।
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एक हिंसा जिसने लालू को बना दिया नेता
1980 का बिहार विधानसभा चुनाव वह जीत गए। 1985 और 1989 तक वह बिहार की विधानसभा में विपक्ष के नेता बने। साल 1989 में वीपी सिंह सरकार में उनका कद और बढ़ा। वह लोकसभा दोबारा पहुंचे। इसी साल 1989 में बिहार के भागलपुर में हिंसा हुई। मुसलमान पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के वोटर माने जाते थे। इस दंगे के बाद लालू यादव मुसलमानों के भी नेता हो गए। भागलपुर दंगे में सैकड़ों लोग मारे गए थे।
24 अक्तूबर 1989 के दिन भागलपुर शहर के पर्बती इलाके से रामजन्मभूमि आंदोलन के शिला पूजन के लिए एक जुलूस की शुरुआत हुई थी।
तातरपुर मुस्लिम इलाके के पास लोगों ने जलूस को रोक लिया। लोगों ने पुलिस पर बम फेंका। कहा जाता है कि कांग्रेस सांसद भगवत झा आजाद और शिवचंदर झा के आपसी टकराव में शहर में दंगे भड़के। दोनों मुस्लिमों का नेता बनना चाहते थे लेकिन यह जानकारी जनता तक पहुंच गई। कांग्रेस की उदासीनता ने मुस्लिमों को नाराज कर दिया था। लालू यादव के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ गया। लालू यादव ने मुस्लिम-यादव वोट बैंक को ऐसे बांधा कि बिहार की सत्ता में वह अगले 2 दशक तक छा गए। उन्होंने अगले कुछ साल कोई दंगा नहीं होने दिया।
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आडवाणी का रथ रोका, खुद बिहार के रथ पर बैठ गए लालू यादव
साल 1990 में जब लालू यादव मुख्यमंत्री बने तो लाल कृष्ण आडवाणी को उन्होंने रथ यात्रा निकालने नहीं दी। उन्होंने गिरफ्तार कर लिया। 23 अक्तूबर 1990 को लालू यादव के आदेश पर आडवाणी की रथ यात्रा रुकी, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लालू यादव के इस फैसले ने उनकी सेक्युलर छवि और मजबूत की और मुस्लिम वोटरों में भरोसा बढ़ा। यह भरोसा, अगले दो दशक तक कायम रहा लेकिन इस दौरान बिहार में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जिसकी वजह से जनता का मोह भंग हो गया।
कब से कब तक सत्ता में हावी रहे लालू यादव
- 1990 विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 324। बहुमत का आंकड़ा: 162
किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं?
जनता दल: 122
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 71
भारतीय जनता पार्टी: 39
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया: 26
अन्य: 66 - 1995 विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 324। बहुमत का आंकड़ा: 162
किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं?
जनता दल: 167
भारतीय जनता पार्टी: 41
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 29
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया: 26
अन्य: 61 - 2000 विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 324। बहुमत का आंकड़ा: 162
किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं?
राष्ट्रीय जनता दल: 124
भारतीय जनता पार्टी: 67
जनता दल (यूनाइटेड): 21
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 23
अन्य: 89 - फरवरी 2005 विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 243। बहुमत का आंकड़ा: 122
किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं?
राष्ट्रीय जनता दल: 75
जनता दल (यूनाइटेड): 55
भारतीय जनता पार्टी: 37
लोक जनशक्ति पार्टी: 29
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 10
अन्य: 37
नोट: यह इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल थी लेकिन पार्टी का किला ढह चुका था। बिहार में नीतीश कुमार युग की शुरुआत होने वाली थी।
नीतीश ने कैसे दरकाई सियासी जमीन?
साल 1990 से लेकर 2005 तक बिहार में लालू यादव की सत्ता रही। 1990 से लेकर 2005 तक राबड़ी देवी राज्य की मुख्यमंत्री रहीं। लालू यादव और राबड़ी देवी, दोनों नेताओं के कार्यकाल में बिहार में खूब नरसंहार हुए, हत्या, अपहरण और बलात्कार की खबरें सुर्खियों में रहीं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में बिहार हत्या और अपहरण जैसे अपराधों में पहले नंबर पर पहुंच गया था।
बिहार से बड़ी संख्या में लोगों ने पलायन किया। साल 2015 में आई सुशील कुमार की किताब 'द ब्रदर्स बिहारी' में इस बात का जिक्र है कि कैसे साल 2005 में ही, अक्तूबर महीने में हुए चुनावों ने बिहार की सत्ता बदल दी। चारा घोटाले से लेकर चम्पा विश्वास रेप केस, जी कृष्णैया हत्याकांड, बथानी टोला नरसंहार, चंद्रशेखर हत्याकांड, शिल्पी जैन मर्डर केस, शंकर बिगहा नरसंहार जैसे तमाम दिल दहलाने वाले कांड हुए। कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से आम जनता बेहाल थी।
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'द ब्रदर्स बिहारी' में सुशील कुमार अपनी किताब में लिखते हैं, '1997 में चारा घोटाले में लालू की गिरफ्तारी के बाद, उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। यह कदम उनकी सत्ता को बचाने की रणनीति थी, लेकिन इससे उनकी छवि को नुकसान पहुंचा। 2005 के विधानसभा चुनाव में, नीतीश कुमार ने जंगलराज को खत्म करने और सुशासन का वादा करके लालू-राबड़ी शासन को उखाड़ फेंका।'
कैसे चला बिहार में नीतीश कुमार का सिक्का?
नीतीश कुमार ने साल 1994 में जनता दल से बगावत कर एक नई पार्टी बनाई। पार्टी का नाम समता पार्टी तय हुआ। उनका नीतीश कुमार के साथ राजनीतिक टकराव बढ़ता गया। एनके सिंह ने साल 2013 में आई किताब 'द न्यू बिहार: रेकिंडलिंग गवर्नेंस एंड डेवलेपमेंट' में लिखा है, 'नीतीश ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर गैर-यादव ओबीसी और सवर्ण वोटों को एकजुट किया। 2005 के विधानसभा चुनाव में नीतीश ने लालू के मुस्लिम-यादव समीकरण को तोड़ दिया। उन्होंने बेहतर कानून-व्यवस्था का वादा किया। उन्होंने सड़कों को बनाने का वादा किया। उनका एजेंडा विकास पर था। बिहार के लोग वक्त की नजाकत को भांप गए थे समाजिक समता, सेक्युलर सिद्धांतों से ज्यादा जरूरी राज्य का विकास है।' अक्तूबर 2005 में जब चुनाव हुए तो जनता इन्हीं वादों पर मुहर लगा चुकी थी।
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कैसे बिहार में टिक गए नीतीश कुमार, खो गए लालू यादव?
लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल, बिहार की मुख्य विपक्षी दल बनी रही लेकिन नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में छाए रहे। साल 2005 में नीतीश कुमार आए तो टिके रह गए। नीतीश कुमार जिस सुशासन के वादे के सहारे चुने गए थे, वह साल-दर-साल और मजबूत हो गई। नीतीश कुमार ने कुछ ऐसे कदम उठाए कि लोगों में 'जंगलराज' का ऐसा डर बैठा, जिससे बिहार आज तक बाहर नहीं निकल पाया।
- कानून व्यवस्था: नीतीश कुमार ने कानून व्यवस्था मे सुधार किया। अपहरण और हत्या जैसे मामले बहुत हद तक नियंत्रण में आ गए। अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलना बंद हो गया। कुख्यात अपराधी या तो राजनीति में उतर आए, या अपराध से किनारा कर लिया। बिहार में जिस अपहरण को उद्योग कहा जाने लगा, उस पर नीतीश ने अंकुश लगाया। उन्होंने सत्ता में आते ही कहा था कि अपराध के प्रति उनका नजरिया, शून्य सहिष्णुता का होगा।
- विकास: नीतीश कुमार ने अपने पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में सड़क और बुनियादी ढांचों को दुरुस्त करने पर ध्यान दिया। उन्होंने सड़क निर्माण, बिजली, और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में कई सुधार किए। इन फैसलों ने नीतीश कुमार की छवि सुशासन बाबू की बनाई। साल 2020 के विधानसभा चुनाव में प्रचंड मोदी लहर होने के बाद भी बिहार का चुनाव नीतीश के चेहरे पर लड़ा गया। उनकी सुशासन बाबू वाली छवि काम आई।
- हर वर्ग के नेता बने नीतीश कुमार: लालू यादव पर मुस्लिम-यादव राजनीति करने के आरोप लगे। उन पर गैर सवर्ण राजनीति करने का ठप्पा लगा। नीतीश कुमार हर वर्ग के नेता साबित हुए। नीतीश कुमार ने गैर-यादव ओबीसी और महादलित समुदायों को अपने साथ जोड़ा, जिससे RJD का वोटबैंक कमजोर हुआ।
- एनडीए फैक्टर: साल 2005 से 2013 तक नीतीश कुमार एनडीए के साथ रहे। दोनों के बीच गठबंधन धर्म की शुरुआत 1998 से हुई थी। बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति करती थी, नीतीश हर वर्ग के नेता थे, मुस्लिमों नेताओं को नीतीश बराबर प्रतिनिधित्व देते रहे। साल 2013 में जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट किया तो इस फैसले से नीतीश कुमार आग बबूला हो गए। गुस्सा और बढ़ गया जब 16 जून 2013 को बीजेपी ने नीतीश कुमार को लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया। नीतीश कुमार ने बीजेपी गठबंधन से रिश्ता तोड़ा, आरजेडी के साथ चले गए और इस्तीफा देकर सत्ता हासिल की। इसी साल, तेजस्वी यादव, पहली बार डिप्टी सीएम बने और तेज प्रताप यादव स्वास्थ्य मंत्री।
- सत्ता पर पकड़: साल 2015 में आरजेडी और जेडीयू ने मिलकर चुनाव लड़ा। यह चुनाव महागठबंधन के बैनर तले लड़ा गया। जीत महागठबधन की हुई। जेडीयू को 71 सीटें मिलीं, आरजेडी को 101। नीतीश कुमार 5वीं बार सीएम बने। साल 2017 तक, नीतीश कुमार सत्ता में आरजेडी की हिस्सेदारी बर्दाश्त नहीं कर पाए। वह कहने लगे कि तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उन्होंने सरकार गिराई और बीजेपी के साथ हो गए। 2015 में नीतीश ने RJD के साथ महागठबंधन बनाकर सत्ता में वापसी की, लेकिन 2017 में भ्रष्टाचार के आरोपों का हवाला देकर गठबंधन तोड़ा और फिर BJP के साथ सरकार बनाई। नीतीश कुमार को 'पलटूराम' का टैग मिला। लोग कहने लगे कि यह कभी भी पलट सकते हैं।
- राजनीतिक दलों की जरूरत बन गई है JDU: नीतीश कुमार के आलोचकों ने कहा कि नीतीश कुमार की पलटबाजी ही ऐसी है, जो उन्हें बिहार में की सियासत में प्रासंगिक बनाए रखी है। साल 2022 में फिर एनडीए से नीतीश कुमार का मोह भंग हुआ। नीतीश कुमार इंडिया ब्लॉक की अगुवाई करने लगे लेकिन आम चुनावों से ठीक पहले वह दोबारा एनडीए में लौट आए और बार-बार कहने लगे कि हम अब यहीं रहेंगे, इधर-उधर नहीं जाएंगे। अब नीतीश कुमार बिहार की सत्ता और एनडीए से ऐसे जुड़े हैं कि जेडीयू के 12 विधायकों के सहारे नरेंद्र मोदी सरकार, देश की सत्ता में बैठी हुई है। वह एनडीए की मजबूरी बन गए हैं। बीजेपी की हिंदुत्व, उनकी अपनी पार्टी की सेक्युलर छवि, बिहार के हर जातीय समीकरण की काट बन गई है।
चुनाव-दर-चुनाव कैसे कमजोर होती गई लालू यादव की पकड़, चुनावी आंकड़ों से समझिए-
अक्टूबर 2005 विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 243। बहुमत का आंकड़ा: 122
किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं?
जनता दल यूनाइटेड: 88
भारतीय जनता पार्टी: 55
राष्ट्रीय जनता दल: 54
लोक जनशक्ति पार्टी: 10
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 9
अन्य: 27
2010 विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 243। बहुमत का आंकड़ा: 122
किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं?
जनता दल यूनाइटेड: 115
भारतीय जनता पार्टी: 91
राष्ट्रीय जनता दल: 22
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 4
लोक जनशक्ति पार्टी: 3
अन्य: 8
2015 बिहार विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 243 । बहुमत का आंकड़ा: 122
किस पार्टी को कितनी सीटें?
राष्ट्रीय जनता दल: 80
जनता दल यूनाइटेड: 71
भारतीय जनता पार्टी: 53
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 27
लोक जनशक्ति पार्टी: 2
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी: 2
हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा सेक्युलर: 1
अन्य: 7
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2020 बिहार विधानसभा चुनाव
कुल सीटें: 243 । बहुमत का आंकड़ा: 122
किस पार्टी को कितनी सीटें?
भारतीय जनता पार्टी: 74
राष्ट्रीय जनता दल: 75
जनता दल यूनाइटेड: 43
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: 19
AIMIM: 5
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया: 2
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी): 2
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन: 12
हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा सेक्युलर: 4
विकासशील इंसान पार्टी: 4
लोक जनशक्ति पार्टी: 1
बहुजन समाज पार्टी: 1
अन्य: 1
नोट: नीतीश कुमार ने दूसरी बार 24 नवंबर 2005 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। तब से लेकर अब तक वह मुख्यमंत्री ही हैं। बिहार के इतिहास से राष्ट्रीय जनता दल के 2 दशक तक ओझल रहने की नींव यहीं पड़ गई थी। नीतीश कुमार से सुशासन का राग जनता को इतना पसंद आया कि अब तक जनता आरजेडी को बहुमत नहीं दे पाई है।
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